हिंदी नाटक : उद्भव एवं विकास ( Hindi Natak : Udbhav Evam Vikas )

हिंदी में नाटक के उद्भव एवं विकास को 19वीं सदी से  स्वीकार किया जाता है लेकिन दशरथ ओझा ने नाटक को 13वीं सदी से स्वीकार करते हुए ‘गाय कुमार रास’ को हिंदी का पहला नाटक ( Hindi ka Pahla Natak ) माना है | उन्होंने मैथिली नाटकों, रासलीला तथा अन्य पद्यबद्ध नाटकों की चर्चा करते हुए मिथिला के नाटकों को हिंदी के प्राचीनतम नाटक माना है लेकिन अधिकांश विद्वान् इससे सहमत नहीं हैं क्योंकि इन रचनाओं में नाटक के अनिवार्य तत्त्वों का अभाव है |

अन्य विधाओं की भांति वास्तव में नाटक साहित्य का विकास  भी भारतेंदु युग में ही हुआ |
संस्कृत नाटकों की परंपरा के ह्रास  के बाद नाटक के क्षेत्र में एक बहुत बड़ा अभाव सामने आया |  हिंदी के आदिकाल और मध्यकाल में नाटक को विशेष प्रोत्साहन  नहीं मिला |  यह ठीक है कि लोक-जीवन में पारंपरिक नाट्य प्रचलित रहा और भाषा नाटक भी लिखे गए हैं | भारतेंदु से पूर्व ब्रज भाषा में नाटक लिखे गए थे | जैसे प्राणचंद चौहान कृत ‘रामायण महानाटक’ तथा बनारसी दास जैन कृत ‘समय सार नाटक’, विश्वनाथ सिंह रचित ‘आनंद रघुनंदन’ आदि | इस प्रकार 1610 ईसवी से लेकर 1850 ईसवी की अवधि में लगभग 14 नाटक प्राप्त हुए हैं | परन्तु इन्हें भी विद्वान् हिंदी के वास्तविक नाटक मानने के पक्ष में नहीं हैं |
 ‘कालचक्र’ नाम की अपनी एक पुस्तक में भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने लिखा है ‘हिंदी नई चाल में ढली,  सन 1873 ईस्वी में’ |  इसी पुस्तक में ( कालचक्र ) में उन्होंने ‘नहुष’ (बाबू गोपाल चंद्र गिरिधरदास द्वारा रचित ) को हिंदी का पहला नाटकराजा लक्ष्मण सिंह द्वारा रचित शकुंतला को हिंदी का द्वितीय नाटक  तथा  विद्यासुंदर ( भारतेन्दु हरिश्चंद्र द्वारा रचित ) को हिंदी का तृतीय नाटक माना है |  ‘नहुष’ ब्रज भाषा में रचित नाटक है | वस्तुतः हिंदी नाटक का विकास ( Hindi Natak Ka Vikas ) भारतेंदु युग से हुआ |

 हिंदी नाटक के विकास ( Hindi Natak ka Vikas ) को निम्नलिखित वर्गों में बांटा जा सकता है :
1️⃣ भारतेंदु युग के नाटक / Bhartendu Yug Ke Natak
2️⃣ द्विवेदी युग के नाटक/ Dvivedi Yug Ke Natak
3️⃣ प्रसाद युग के नाटक/ Prasad Yug Ke Natak
4️⃣ प्रसादोत्तर युग के नाटक / Prasadottar Yug Ke Natak

1️⃣ भारतेंदु युग के नाटक : भारतेंदु जी ने नाट्य-रचना के क्षेत्र में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य किया | उनकी नाट्य-रचनाओं को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है – अनुदित नाटक,  रूपांतरित नाटक और मौलिक  नाटक |
भारतेंदु जी ने संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी के कई नाटकों का हिंदी में अनुवाद किया |
विद्या सुंदर, पाखंड विखंडन,  कर्पूर मंजरी, मुद्राराक्षस रत्नावली और दुर्लभ बंधु भारतेंदु जी के अनुदित नाटक हैं |
भारतेंदु जी के द्वारा रचित मौलिक नाटकों में वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति,  चंद्रावली, विषस्य विषम औषधम,  भारत दुर्दशा,  नील देवी, अंधेर नगरी आदि का नाम प्रमुख है |
 उनके द्वारा रचित मौलिक नाटकों में से कुछ नाटक अन्य भाषाओं के नाटकों का रूपांतरित रूप  प्रकट होते हैं  |
भारतेंदु जी से प्रेरणा प्राप्त करके अनेक लेखक नाटक लेखन के क्षेत्र की ओर प्रवृत्त हुए | इनमें अंबिकादत्त व्यास, देवकीनंदन त्रिपाठी, श्री नंदन सहाय,  राधा कृष्ण दास, बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन, दुर्गादत्त, गोपालराम गहमरी,  प्रताप नारायण मिश्र,  किशोरी लाल गोस्वामी, श्रीनिवास दास बालकृष्ण भट्ट आदि का नाम प्रमुख है |
 भारतेंदु युग में देशभक्ति की भावना, राष्ट्रीय जागरण,  समाज सुधार, सांस्कृतिक चेतना की अभिव्यक्ति नाटकों के माध्यम से की गई |
 पौराणिक नाट्य धारा के अंतर्गत राम,  कृष्ण,  सीता, सुदामा,  रुक्मणी आदि के पौराणिक पात्रों को आधार बनाकर  कई नाटक लिखे गए |  ऐतिहासिकता  के आधार पर महाराणा प्रताप, संयोगिता स्वयंवर,  मीराबाई,  हमीर आदि को लेकर नाट्य-रचनाएं लिखी गई | राष्ट्रीय धारा के अंतर्गत वे  नाटक आते हैं जो देश की दुर्दशा का चित्रण करते हैं तथा इसके लिए उत्तरदायी तत्वों पर प्रकाश डालते हैं | सामाजिक नाटकों के अंतर्गत वे नाटक उल्लेखनीय हैं  जिनमें रूढ़ियों,  अंधविश्वासों व गलत परम्पराओं पर चोट की गई है | नारी जीवन को लेकर  अनेक नाटक लिखे गए | इनमें मयंक मंजरी ( किशोरी लाल गोस्वामी ) और रणधीर प्रेम मोहिनी ( श्री निवासदास ) महत्वपूर्ण है |

2️⃣ द्विवेदी युग के नाटक : द्विवेदी युग में हिंदी-नाटक विकास की उस गति को खो बैठा जो उसने भारतेंदु युग में प्राप्त की  थी |  इस युग के नाटककारों को  एक तो परंपरागत रंगमंच उपलब्ध नहीं हो पाया और दूसरे इनका मध्य-वर्ग  से संबंध टूट गया | द्विवेदी-युग के नाटकों में सुधारवादी दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से दिखाई देता है | इस युग के अधिकांश नाटक सुधारवादी दृष्टिकोण के कारण उपदेशात्मक डॉक्यूमेंट्री बन कर रह गये | पारसी रंगमंच हिंदी क्षेत्र पर छा गया और हिंदी रंगमंच अपना अस्तित्व खोने लगा |
 इस युग के कुछ प्रमुख नाटककारों  में आगा हश्र कश्मीरी,  पंडित राधेश्याम कथावाचक,  नारायण प्रसाद बेताब, हरि कृष्ण जौहर आदि का नाम लिया जा सकता है |

3️⃣ प्रसाद युग के नाटक : जयशंकर प्रसाद जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार हैं | उन्होंने कवि  होने के साथ-साथ कहानी,  उपन्यास और नाटक के क्षेत्र में भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया | वस्तुत: कवि के बाद प्रसाद नाटककार के रूप में ही सर्वाधिक  प्रसिद्ध हुए | प्रसाद ने आरंभ में कल्याणी परिणय,  करुणालय,  प्रायश्चित आदि रूपक लिखे किंतु उनके प्रतिभा का उदय ‘राज्यश्री’ से हुआ | उसके बाद विशाखदत्त, अजातशत्रु, जनमेजय का नागयज्ञ,  एक घूंट,  कामना, स्कंदगुप्त,  चंद्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी जैसे नाटक लिखकर उन्होंने हिंदी नाटक को विशेष आयाम प्रदान किए |  उनके नाटकों का मुख्य स्वर राष्ट्रीय-चेतना, सांस्कृतिक चेतना व देशभक्ति होते हुए भी उनके नाटकों में मानवीय करुणा और विश्व बंधुत्व  की भावना का एक विशेष स्वर सुनाई देता है|
 प्रसाद के समकालीन नाटककार उनके समक्ष कोई विशेष पहचान नहीं बना पाए | फिर भी वियोगी हरि द्वारा रचित ‘छदम योगिनी’ और मैथिलीशरण गुप्त कृत ‘तिलोत्तमा ‘ विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक कृत ‘भीम’ आदि कुछ ऐसे नाटक है जिन्होंने अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई |

4️⃣ प्रसादोत्तर नाटक : प्रसादोत्तर काल से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति  तक हिंदी नाटक कई धाराओं में विभक्त रहा | इस काल में एक ओर प्रसाद की नाट्य परंपरा का ही अनुसरण होता रहा तो दूसरी ओर यथार्थवादी और सामाजिक समस्या मूलक  प्रवृत्तियों के आधार पर नाटक लिखे गए | प्रसाद की नाट्य परंपरा की वास्तविक पुनरावृति कभी संभव नहीं हुई क्योंकि प्रसाद का अपना एक व्यक्तित्व और अपनी प्रतिभा थी जिसका मुकाबला कोई अन्य नहीं कर पाया |
 प्रसादोत्तर युग में हरिकृष्ण प्रेमी, चंद्रगुप्त विद्यालंकार, गोविंद बल्लभ पंत और वृंदावन लाल वर्मा आदि नाटककारों ने ऐतिहासिक नाटक रचना की परंपरा को अक्षुण्ण रखा | जहां प्रसाद जी ने प्राचीन भारत के गौरवमयी चित्र प्रस्तुत किए थे वहीं हरि कृष्ण प्रेमी ने अपने नाटकों में मध्यकाल को स्थान दिया | उनके नाटकों में रक्षाबंधन, शिवा साधना, कीर्ति स्तंभ, प्रकाश स्तंभ आदि नाटक उल्लेखनीय है |

 जगदीश चंद्र माथुर द्वारा रचित ‘कोणार्क’ और  ‘शारदीया’ नाटक भी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखे गये  उल्लेखनीय नाटक है |
 इस युग के नाटकों की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यदि इस युग में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर नाटक लिखे भी गए हैं तो उन्हें समसामयिक आधार पर एक नए रंग में प्रस्तुत किया गया है | उदाहरण के लिए मोहन राकेश द्वारा रचित नाटक ‘लहरों के राजहंस’  ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से होते हुए भी मनुष्य के उस अंतर्द्वंद्व को  अभिव्यक्त करता है जो आधुनिक मानव के लिये अधिक प्रासंगिक लगता है | मोहन राकेश द्वारा रचित ‘आधे अधूरे’ आधुनिक मध्यमवर्गीय परिवार की त्रासद अभिव्यक्ति है | नरेश मेहता और मन्नू भंडारी के नाटकों में आधुनिक बोध स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है | इनमें आजकल के पढ़े-लिखे पति पत्नी के बीच पैदा हुए तनाव की अभिव्यक्ति की गई है |

◼️ निष्कर्षत: आधुनिक हिंदी साहित्य की अन्य विधाओं के मुकाबले में हिंदी नाटक का विकास अपेक्षाकृत मंद गति से हुआ है और आने वाले समय में इस विधा का और अधिक क्षरण होना स्वाभाविक है | क्योंकि नाटक वास्तव में रंगमंच पर प्रस्तुत करने के लिए लिखे गए होते हैं |  लेकिन वर्तमान में रंगमंच की तरफ दर्शकों का अधिक रुझान नहीं है | फिर भी कुछ साहित्यकार अपने प्रयासों से नाटक विधा को न केवल जीवित रखे हुये  हैं बल्कि समय की मांग के अनुरूप उसमें नये तत्त्वों का समावेश कर उसे रुचिकर भी बना रहे हैं |

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13 thoughts on “हिंदी नाटक : उद्भव एवं विकास ( Hindi Natak : Udbhav Evam Vikas )”

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