भारतीय सन्दर्भ में धर्मनिरपेक्षता

भारतीय सन्दर्भ में धर्मनिरपेक्षता हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या में विवादित 2.77 एकड़ जमीन को रामलला के पक्ष में सुनाया है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया यह ऐतिहासिक निर्णय अपने आप में एक मील का पत्थर साबित हो सकता है। इस निर्णय से श्री राम जन्म भूमि के कानूनी विवाद का समाधान हो गया है जिससे वर्षों से हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच तनाव का अंत होने की संभावनाएं बढ़ गई | यहाँ भारतीय मुसलमान भी बधाई के पात्र हैं कि इस निर्णय के आने बाद उन्होंने इस निर्णय को स्वीकार किया | कुछ मुस्लिम संगठन अगर इससे नाराज हैं भी तो वे इसके लिए गैर संवैधानिक कदम न उठाते हुए सर्वोच्च न्यायालय में पुनर्रीक्षण याचिका डाल रहे हैं जो उनका उनका अधिकार है | आशा है कि न्यायालय में उनके याचिका पर ईमानदारी से विचार होगा और उनके सभी संशय दूर किये जायेंगे | इस निर्णय ने जहाँ वर्षों से लंबित केस का निपटारा कर दिया साथ ही भारत में धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर नई बहस शुरू हो गई है।

परिचय

पश्चिमी मॉडल में धर्मनिरपेक्षता से आशय ऐसी व्यवस्था से है जहाँ धर्म और राज्यों का एक-दूसरे के मामले मे हस्तक्षेप न हो, व्यक्ति और उसके अधिकारों को केंद्रीय महत्व दिया जाए अर्थात पश्चिम में राज्य धर्म से पूरी तरह तटस्थ रहता है | वहीं इसके विपरीत भारत में  धर्म निरपेक्षता की पश्चिम मॉडल वाली परिभाषा ही दी जाती है परन्तु फिर भी  प्राचीन काल से ही राज्य द्वारा विभिन्न विचारधाराओं को स्थान दिया जाता रहा है। यहाँ धर्म को जिंदगी का एक तरीका, आचरण संहिता, नैतिक मूल्यों का पोषक तथा व्यक्ति की सामाजिक पहचान माना जाता रहा है। इस प्रकार भारतीय संदर्भ में धर्मनिपेक्षता का मतलब समाज में विभिन्न धार्मिक पंथों एवं मतों का सहअस्तित्त्व, मूल्यों को बनाए रखने, सभी पंथों का विकास, और समृद्ध करने की स्वतंत्रता तथा साथ-ही-साथ सभी धर्मों के प्रति एकसमान आदर तथा सहिष्णुता विकसित करना रहा है।

🔷 भारतीय संविधान में  धर्मनिरपेक्षता 🔷

सर्वविदित है कि भारत की प्रस्तावना में 42वें संविधान संशोधन ( 1976 )  के बाद पंथनिरपेक्ष शब्द जोड़ा गया, लेकिन धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग भारतीय संविधान के किसी भाग में नहीं किया गया है, वैसे संविधान में कई ऐसे अनुच्छेद मौजूद हैं जो भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य सिद्ध करते हैं, जिसकी पुष्टि निम्न बिन्दुओं से होती है-

◾️भारत में संविधान द्वारा नागरिकों को यह विश्वास दिलाया गया है कि उनके साथ धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा।
◾️संविधान में भारतीय राज्य का कोई धर्म घोषित नहीं किया गया है और न ही किसी विशेष  धर्म का समर्थन किया गया है।
संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार भारतीय राज्य  में सभी व्यक्ति कानून की दृष्टि से समान होगें और धर्म, जाति अथवा लिंग के आधार पर उनके साथ कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा।
◾️ अनुच्छेद 15 के तहत धर्म, जाति, नस्ल, लिंग और जन्म स्थल के आधार पर भेदभाव निषेध है।
◾️अनुच्छेद 16 में सार्वजनिक रोजगार के क्षेत्र में सबको एक समान अवसर प्रदान करने की बात की गई है। (कुछ अपवादों के साथ)
◾️इसके साथ भारतीय संविधान द्वारा प्रत्येक नागरिक को अनुच्छेद 25 से 28 तक धार्मिक स्वतन्त्रता का मौलिक  अधिकार भी प्रदान किया गया है।
◾️ संविधान के अनुच्छेद 25 में प्रत्येक व्यक्ति को अपने धार्मिक विश्वास और सिद्धांतों का प्रसार करने या फैलाने का अधिकार दिया गया है।
◾️ अनुच्छेद 26 के तहत धार्मिक संस्थाओं की स्थापना का अधिकार प्रदान किया गया है।
◾️अनुच्छेद 27 कहता है कि नागरिकों को किसी विशिष्ट धर्म या धार्मिक संस्था की स्थापना या पोषण के एवज में कर देने के लिये बाध्य नहीं किया जायेगा।  इस धर्म का दुरुपयोग करके अनेक धार्मिक संस्थाएं अरबों रुपये का हेरफेर कर रही हैं |
◾️अनुच्छेद 28 के तहत सरकारी शिक्षण संस्थाओं में किसी प्रकार की धार्मिक शिक्षा नहीं दिए जाने का प्रावधान किया गया है। परन्तु पिछले कुछ वर्षों से हरियाणा के सरकारी विद्यालयों में ‘भगवद्गीता’ व ‘सरस्वती’ को  महिमामंडित करने के लिए अनेक कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है जो धर्म निरपेक्षता की अवधारणा को खंडित करने का कृत्य है | कुरुक्षेत्र में 23 नवम्बर, 2019 से 10 दिसंबर, 2019 तक आयोजित अंतराष्ट्रीय गीता महोत्सव और दीपावली के अवसर पर उत्तरप्रदेश में राज्य सरकार द्वारा अरबों रूपये खर्च करना भी धर्मनिरपेक्षता की मूल अवधारणा के विरुद्ध है |
◾️संविधान के अनुच्छेद 30 में अल्पसंख्यक समुदायों को स्वयं के शैक्षणिक संस्थान खोलने एवं उन पर प्रशासन करने का अधिकार दिया गया है।
◾️अनुच्छेद 44 में प्रावधान किया गया है कि राज्य सभी नागरिकों के लिये समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) बनाने का प्रयास करेगा।

              धर्मनिरपेक्षता का महत्त्व

भारतीय धर्मनिरपेक्षता अपने आप में एक अनूठी अवधारणा है जिसे भारतीय संस्कृति की विशेष आवश्यकताओं और विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए अपनाया गया है।

◾️धर्मनिरपेक्षता समाज में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी तथा तर्कवाद को प्रोत्साहित करता है और एक आधुनिक धर्मनिरपेक्ष राज्य का आधार बनाता है।
◾️एक धर्मनिरपेक्ष राज्य धार्मिक दायित्वों से स्वतंत्र होता है सभी धर्मों के प्रति एक सहिष्णु रवैया अपनाता है।
व्यक्ति अपनी धार्मिक पहचान के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होता है इसलिए वह किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह के हिंसापूर्ण व्यवहार के खिलाफ सुरक्षा प्राप्त करना चाहेगा। यह सुरक्षा सिर्फ धर्मनिरपेक्ष राज्य ही प्रदान कर सकता है।
◾️धर्मनिरपेक्ष राज्य नास्तिकों के भी जीवन और संपत्ति की रक्षा करता है और उन्हें अपने तरीके की जीवन शैली और जीवन जीने का अधिकार भी प्रदान करता है। नास्तिक व्यक्ति अन्य धर्मावलम्बियों की अपेक्षा धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का कड़ा पक्षधर होता है |
धर्मनिरपेक्ष राज्य राजनैतिक दृष्टि से भी ज्यादा स्थायी होता है।
इस प्रकार धर्मनिरपेक्षता एक सकारात्मक, क्रांतिकारी और व्यापक अवधारणा है जो विविधता को मजबूती प्रदान करता है।

     भारतीय धर्मनिरपेक्षता मॉडल का मौलिक तत्त्व

पश्चिम की पूर्णतया अलगाववादी नकारात्मक धर्मनिरपेक्ष अवधारणा के विपरीत भारत की धर्मरिपेक्षता समग्र रूप से सभी धर्मों का सम्मान करने की संवैधानिक मान्यता पर आधारित है।
भारतीय धर्मनिरपेक्षता धर्म और राज्य के बीच संबंध विच्छेद पर बल नहीं देती है बल्कि अंतर-धार्मिक समानता पर जोर देती है। यही भारतीय धर्मनिरपेक्षता की मूल अवधारणा है जो कभी-कभी सत्ता गलत हाथों में आने पर स्वयं धर्मनिरपेक्षता के लिए ही खतरा बन जाती है जैसा कि पिछले कुछ वर्षों में देखा जा रहा है |
धर्मनिरपेक्षता पर नेहरु के विचार काफ़ी कुछ पश्चिम की धर्मनिरपेक्षता से मिलते-जुलते हैं लेकिन वे राज्य का धर्म से पूर्णत: सम्बन्ध-विच्छेद नहीं चाहते थे |  पंडित जवाहर लाल नेहरू ऐसा धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र चाहते थे जो ‘सभी धर्मों की हिफाजत करे अन्य धर्मों की कीमत पर किसी एक धर्म की तरफदारी न करे और खुद किसी धर्म को राज्यधर्म के तौर पर स्वीकार न करे। नेहरु भारतीय धर्मनिरपेक्षता के समर्थक थे। नेहरु स्वयं किसी धर्म का अनुसरण नहीं करते थे। स्मरणीय हो कि ईश्वर में उनका विश्वास नहीं था, लेकिन उनके लिए धर्मनिरपेक्षता का मतलब धर्म के प्रति विद्वेष नहीं था। इस अर्थ में नेहरु तुर्की के अतातुर्क से काफी भिन्न थे। साथ ही वे धर्म और राज्य के बीच पूर्ण संबंध विच्छेद के पक्ष में भी नहीं थे। उनके विचार के अनुसार, समाज में सुधार के लिए धर्मनिरपेक्ष राज्यसत्ता धर्म के मामले में हस्तक्षेप कर सकती है। उनका मानना था कि यह हस्तक्षेप केवल धार्मिक सौहार्द के लिए होना चाहिए किसी विशेष धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए नहीं |

धर्मनिरपेक्षता पर गांधी जी के विचार 

महात्मा गांधी निजी जीवन में धार्मिक व्यक्ति थे, वे धर्म और राजनीति के मध्य पारस्परिक संबंधों को प्रमुखता देते थे। इस मामले में वे पंडित नेहरू से अलग मत रखते थे।

गौरतलब है कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता ने अंतःधार्मिक और अंतर-धार्मिक वर्चस्व पर एक साथ ध्यान केंद्रित किया है। इसने हिंदुओं के अंदर दलितों और महिलाओं के उत्पीड़न और भारतीय मुसलमानों अथवा ईसाइयों के अंदर महिलाओं के प्रति भेदभाव तथा बहुसंख्यक समुदाय द्वारा अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों के अधिकारों पर उत्पन्न किए जा सकने वाले खतरों का विरोध किया है, जो इसे पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा से भिन्न बनाती है।
यदि पश्चिम में कोई धार्मिक संस्था किसी समुदाय या महिला के लिए कोई निर्देश देती है तो सरकार और न्यायालय उस मामले में हस्तक्षेप नहीं कर सकते हैं। जबकि भारत में मंदिरों, मस्जिदों में महिलाओं के प्रवेश जैसे मुद्दों पर राज्य और न्यायालय दखल दे सकते हैं।
एक अन्य भिन्नता यह भी है कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता का संबंध व्यक्तियों की धार्मिक आजादी से ही नहीं बल्कि अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक आबादी से भी है। इसके अंतर्गत हर आदमी को अपनी पसंद का जहाँ धर्म चुनने व मानने का अधिकार है, वहीं धार्मिक अल्पसंख्यकों को भी अपनी खुद की संस्कृति और शैक्षिक संस्थाएँ कायम रखने का अधिकार दिया गया है।
भारतीय धर्मनिरपेक्षता में राज्य समर्थित धार्मिक सुधार की गुंजाइश भी होती है और अनुकूलता भी, जो पश्चिम में देखने को नहीं मिलती है। उदाहरण के लिए भारतीय संविधान ने अस्पृश्यता पर प्रतिबंध लगाया है, वहीं भारत राज्य ने बाल विवाह के उन्मूलन और अंतर्जातीय विवाह पर हिंदूधर्म के द्वारा लगाए निषेध को खत्म करने हेतु अनेक कानून भी बनाए हैं।
भारत में धर्मनिरपेक्षता के तहत गांधी जी की अवधारणा पर ज्यादा बल दिया गया है, जिसके अनुसार सभी धर्मों को समान और सकारात्मक रूप से प्रोत्साहित करने की बात की गई है।
इस प्रकार भारत की धर्मनिरपेक्षता न तो पूरी तरह धर्म के साथ जुड़ी है और न ही इससे पूरी तरह तटस्थ है। विदित हो कि भारत के सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद मामले में दिए अपने निर्णय में धर्मनिरपेक्षता को भारत की आधारभूत संरचना का हिस्सा माना है। भारतीय धर्मनिरपेक्षता अपने इन्हीं मूल्यों के आधार पर पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता से सैद्धान्तिक रूप में भिन्न है।

      भारतीय धर्मनिरपेक्षता की आलोचना क्यों

भारतीय धर्मनिरपेक्षता अपने शुरूआती समय से ही तीखी आलोचनाओं का विषय रही है। जिसको लेकर कई तर्क भी दिए जाते रहे हैं। यहाँ हम उन चुनौतियो का जिक्र निम्न बिन्दुओ के अंतर्गत कर सकते हैं-

कुछ आलोचकों का तर्क है कि धर्म निरपेक्षता धर्म विरोधी है, लेकिन भारतीय धर्म निरपेक्षता धर्म विरोधी नहीं है। इसमें सभी धर्मों को उचित सम्मान दिया गया है। उल्लेखनीय है कि धर्म निरपेक्षता संस्थाबद्ध धार्मिक वर्चस्व का विरोध तो करती है लेकिन यह धर्म विरोधी होने का पर्याय नहीं है।
धर्म निरपेक्षता के विषय में यह भी कहा जाता है कि यह पश्चिम से आयातित है, अर्थात ईसाईयत से प्रेरित है, लेकिन यह सही आलोचना नहीं है। दरअसल भारत में धर्मनिरपेक्षता को प्राचीन काल से ही अपनी एक विशिष्ट पहचान रही है, यह कहीं से आयातित नहीं बल्कि मौलिक है।
भारत की धर्मनिरपेक्षता पर अल्पसंख्यक वाद होने का भी आरोप लगता रहा है। विदित हो कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता अल्पसंख्यक अधिकारों की पैरवी जरूर करती है मगर यह पैरवी न्याय के अनुसार होता है। ऐसे में अल्पसंख्यक अधिकारों को विशेष सुविधाओं के रूप में नहीं देखना चाहिए।
भारत में धर्मनिरपेक्षता राज्य द्वारा संचालित होती है। अल्पसंख्यकों को शिकायत है कि राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। उल्लेखनीय है कि तीन तलाक के मसले पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का यह कहना था कि सामाजिक सुधारों के नाम पर राज्य द्वारा निजी कानूनों में दखल दिया जा रहा है। वहीं जैन धर्मावलंबी अपनी संथारा प्रथा का बचाव उसके हजारों सालों से चले आने के आधार पर कर रहे हैं।
इसके आलावा यह भी आरोप लगाया जाता रहा है कि राज्य बहुसंख्यकों से प्रभावित होकर ही अल्पसंख्यकों के मामलों में दखल देता है। इसके विपरीत बहुसंख्यकों को यह संदेह होता है कि राज्य अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण कर रहा है। ऐसी प्रवृत्ति समुदायों में सांप्रदायिकता बढ़ाने का काम कर रही है।
धर्मनिरपेक्षता पर सवाल उठाती कुछ घटनाएँ भी इसके समक्ष चुनौती पेश करती रही हैं जैसे 1984 के दंगे, बाबरी मस्जिद का ध्वंस, वर्ष 1992-93 के मुंबई दंगे, गोधरा कांड और वर्ष 2003 के गुजरात दंगे, गौहत्या रोकने की आड़ में धार्मिक और नस्लीय हमले आदि।
नतीजतन भारत में धर्मनिरपेक्षता धार्मिक कट्टरवाद, उग्र राष्ट्रवाद तथा तुष्टिकरण की नीति के कारण खतरे में है।
कुछ आलोचकों का तर्क है कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता उत्पीड़नकारी है। यह व्यक्ति की धार्मिक स्वतन्त्रता में अधिक हस्तक्षेप करती है। जबकि ऐसा नहीं है, भारतीय धर्मनिरपेक्षता का स्वरूप उत्पीड़नकारी नहीं बल्कि सुधारवादी है।
धर्मनिरपेक्षता शब्द हमारे संविधान में अच्छी तरह से परिभाषित नहीं है जो इसके दुरुपयोग और इसे अपरिभाषित करने के लिये एक समुचित जगह प्रदान करता है। इस अर्थ में, समय-समय पर धर्मांतरण शब्द का भी दुरुपयोग और इसकी गलत व्याख्या की जाती रही है।
आलोचकों द्वारा एक अन्य तर्क यह भी दिया जाता है कि धर्मनिरपेक्षता वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा देती है।
यूनिफॉर्म सिविल कोड धर्मनिरपेक्षता के समक्ष एक अन्य चुनौती पेश कर रही है दरअसल, यूनिफॉर्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता आज तक बहाल नहीं हो पाई है और एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के तौर पर यह देश की सबसे बड़ी चुनौती है।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि भारतीय राज्य का धर्मनिरपेक्ष चरित्र वस्तुतः इसी वजह से बरकरार है कि वह न तो धर्मतांत्रिक है और न ही वह किसी धर्म को राजधर्म मानता है। इसके बदले इसने धार्मिक समानता हासिल करने के लिए अत्यंत परिष्कृत नीति अपनाई है। इसी नीति के चलते वह अमेरिकी शैली में धर्म से विलग भी हो सकता है या जरूरत पड़ने पर उसके साथ संबंध भी बना सकता है। उल्लेखनीय है कि भारतीय राज्य धार्मिक अत्याचार का विरोध करने हेतु धर्म के साथ निषेधात्मक संबंध भी बना सकता है। यह बात अस्पृश्यता पर प्रतिबंध, तीन तलाक, सबरीमाला मंदिर में महिलाओं का प्रवेश जैसी कार्रवाइयों में भी झलकती है।

इसके अलावा शांति, स्वतंत्रता और समानता के मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए भारतीय राज्य सत्ता तमाम जटिल रणनीतियाँ अपना सकती है। अंततः स्पष्ट है कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता का तात्पर्य शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व अथवा सहिष्णुता से काफी आगे तक जाता है। अब आवश्यकता इस बात की है कि इसकी खामियों को दूर किया जाए। इसके लिए यहाँ कुछ सुझावों को अमल में लाया जा सकता है-

सरकार को चाहिए कि वह इसका सरंक्षण सुनिश्चित करे चूँकि धर्मनिरपेक्षता को न्यायालय द्वारा संविधान के मूल ढाँचे का हिस्सा मान लिया गया है।
धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक जनादेश का पालन सुनिश्चित करने के लिये एक आयोग का गठन भी किया जाना चाहिये।
जनप्रतिनिधियों को ध्यान में रखना चाहिए कि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में धर्म एक विशुद्ध रूप से व्यक्तिगत और निजी मामला होता है। अंत उसे वोट बैंक के लिए राजनीतिक मुद्दा नहीं बनाया जाना चाहिए। साथ ही राजनीति को धर्म से अलग करके देखा जाना चाहिये।
गौरतलब है कि एस-आर- बोम्मई बनाम भारत गणराज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर धर्म को राजनीति से अलग नहीं किया जाएगा, तो सत्ताधारी दल का धर्म ही देश का धर्म बन जाएगा। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय पर राजनीतिक दलों को अमल करने की आवश्यकता है।
धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा अल्पसंख्यकों को मान्यता देने और उनका संरक्षण सुनिश्चित करने पर आधारित है। अतः अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिये विशेष प्रयास किये जाने चाहिये और इसे धर्मनिरपेक्षता के चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिये।

यह भी देखें

संस्कृति की आड़ में

स्वच्छता की नौटंकी

संवेदनहीनता के उद्घोष

कर्म-कर्म जपहु रे भाई

सोशल मीडिया पर हिंदी का आना

सिन्धु घाटी की सभ्यता सभ्यता और राजनीतिक स्वाँग

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