भारत की प्रमुख प्रजातियां व जनजातियां

भारत की जनजातियां यहां की आदिवासी तथा मूल निवासियों की जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करती हैं | इनके जीवन जीने का ढंग वर्तमान समय में भी अति प्राचीन है | भले ही इनमें से कुछ जनजातियों ने स्थायी कृषि, पशु पालन आदि का आरंभ कर दिया हो किंतु अधिकांश जनजातियां आज भी शिकार करने, मछली पकड़ने, लकड़ी काटने आदि परंपरागत कार्यों से ही अपना जीवन निर्वाह करती हैं | आज भी भारत में 50 से अधिक जनजातियां हैं |

डॉ. गुहा ने भारतीय उप-महाद्वीप की जनसंख्या को मुख्य रूप से निम्नलिखित छः जाति-समूहों तथा उनके नौ उपभेदों में बांटा है —

(1) निग्रिटो वर्ग (Negrito)

(2) आद्य-आस्ट्रेलॉइड (Proto-Australoid)

(3) मंगोलॉइड (Mongoloid) – मंगोलॉयड प्रजाति की दो उपप्रजातियां हैं —

(i) पुरा-मंगोलॉइड (Palae-Mongoloid)

(क) लम्बे सिर वाले। (ख) चौड़े सिर वाले।

(ii) तिब्बती मंगोलॉइड (Tibeto-Mongoloid)

(4) भूमध्यीय सागरीय निवासी (Mediterranean) – भूमध्यसागरीय निवासी भी अनेक उपप्रजातियों में बंटे हैं —

(i) पुरा-भूमध्य सागरीय निवासी (Palae-Mediterranean)

(ii) भूमध्य सागरीय निवासी (Mediterranean)

(iii) भूमध्य सागरीय निवासियों के प्राच्य उपभेद।

(5) चौड़े सिर वाले पाश्चात्य लघु शीर्ष (Western Branchycephals) — इनकी निम्नलिखित उपप्रजातियां हैं —

(i) अल्पाइन निवासी (Alpinoid),

(ii) डिनैरिक (Dinaric),

(iii) अर्मेनॉयड (Armenoid)

(6) नॉडिक (Nordic)

भारत में पाये जाने वाले नीग्रिटी, प्रोटो-ऑस्टोलायड व मंगोलायड प्रजातियों के लोग आदिवासी जनजातियों के अंतर्गत आते हैं।

(1) नीग्रिटो — भारत में यह प्रजाति अंडमान-निकोबार एवं त्रावणकोर व कोचीन की पहाड़ियों में पाई जाती है।

(2) प्रोटो-ऑस्ट्रेलायड — ये मध्य एवं दक्षिण भारत की कबिलाई जनजातियों की प्रजाति हैं ।

(3) मंगोलॉयड — भारत में ही पुरा-मंगोलॉयड और तिब्बती मंगोलॉयड प्रजाति के लोग मिलते हैं |

(क) पुरा-मंगोलायड — (i) लंबा सिर वाला एवं (ii) चौड़ा सिर वाला – इस प्रजाति के लोग असम और हिमालय क्षेत्र में मिलते हैं |

(ख) तिब्बती मंगोलायड — इससे प्रजाति के लोग लेह, लद्दाख क्षेत्र में मिलते हैं |

विकसित प्रजातियों के अंतर्गत पुरा-भूमध्यसागरीय भूमध्यसागरीय प्राच्य, नॉर्डिक एवं पश्चिमी लघु कापालिक लोग आते हैं।

(1) पुरा-भूमध्यसागरीय — दक्षिण भारत एवं उत्तर भारत की निम्न जातियाँ दीर्घ कापालिक होते हैं।

(2) भूमध्यसागरीय — इसमें उत्तर भारत की उच्च जातियाँ आती हैं |

(3) प्राच्य — इसमें पंजाब, राजस्थान, सिंधु, गुजरात, महाराष्ट्र आदि के लोग आते हैं |

(4) पश्चिमी लघु कापालिक — ये दक्षिणी बलुचिस्तान, सिंधु, गुजरात, महाराष्ट्र में पाये जाते हैं।

(5) नार्डिक — इस प्रजाति में उत्तर पश्चिम भारत के लोग आते हैं |

भारत में आने वाला सबसे पहला प्रजाति समूह नीग्रो था। उसके पश्चात क्रमशः प्रोटो-ऑस्ट्रेलायड एवं भूमध्यसागरीय प्रजातियों का आगमन हुआ।

उन्हीं दोनों प्रजातियों ने मिलकर हड़प्पा सभ्यता की शुरुआत की। नार्डिक प्रजाति भारत में सबसे अंत में आयी। ये सभी प्रजातियाँ अपने प्रजातीय गुणों के आधार पर एक दूसरे से अलग होती हैं।

इन प्रजातीय गुणों में बालों का रंग व स्वरूप, कपाल संरचना, नासिका सूचकांक, आँखों का रंग व आकार, शारीरिक ढांचा, त्वचा का रंग, रक्त समूह आदि आते हैं।

परंतु भारत में प्रजातियों का अत्यधिक मिश्रण हुआ है एवं एक प्रकार से यहाँ भारतीय प्रजाति का विकास हो गया है, यद्यपि प्रजातीय गुण कुछ हद तक इनकी विशेषताओं को प्रकट करते हैं।

भारत की प्रमुख जनजातियाँ

भारत में कुल 461 जनजातियाँ हैं, जिनमें 424 अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत है। इन्हें सात क्षेत्र में बाँट सकते हैं।

(1) उत्तरी क्षेत्र की जनजातियां

इसके अंतर्गत जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश क्षेत्र की जनजाति आती हैं। इन जनजातियों में लाहुल, लेपचा, भोटिया, थारू, बुक्सा, जौसारी, खम्पा, कनौटा हैं ।

इन सभी में मंगोल प्रजाति के लक्षण मिलते हैं। भोटिया अच्छे व्यापारी होते हैं एवं चीनी-तिब्बती परिवार की भाषा बोलते हैं।

(2) पूर्वोत्तर क्षेत्र की जनजातियां

असम, अरुणाचल, नागालैंड, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, मिजोरम की जनजातियाँ इनके अंतर्गत आते हैं। दार्जीलिंग व सिक्किम में लेपचा; अरुणाचल में अपन्ती, मिरी, डफला व मिश्मी; असम-मणिपुर सीमावर्ती क्षेत्र में हमर जनजाति, नागालैंड व पूर्वी असम में नागा; मणिपुर, त्रिपुरा में कुकी; मिजोरम में लुशाई आदि जनजातियाँ आती हैं।

अरुणाचल के तवांग में बौद्ध जनजातियां मोनपास, शेरदुकपेंस और खाम्पतीस रहती हैं | वर्तमान में चीन इस पर अपना दावा कर रहा है।

नागा जनजाति उत्तर में कोनयाक, पूर्व में तंखुल, दक्षिण में कबुई, पश्चिम में रेंगमा व अंगामी एवं मध्य मे लहोटा व फोम आदि उपजातियों में बंटी हुई हैं। मेघालय में गारो, खासी व जयंतिया जनजातियाँ मिलती हैं।

पूर्वोत्तर क्षेत्र की सभी जनजातियों में मंगोलायड प्रजाति के लक्षण मिलते हैं। ये तिब्बती, बर्मी, श्यामी उवं चीनी परिवार की भाषा बोलती हैं। ये खाद्य संग्रहक, शिकारी, कृषक एवं बुनकर होते हैं।

(3) पूर्वी क्षेत्र की जनजातियां

इसके अंतर्गत झारखंड प. बंगाल, उड़ीसा व बिहार की जनजातियां आती है। जुआंग, खरिया, खोंड, भूमिज उड़ीसा की जनजातियां हैं।

प. बंगाल में मुख्यतः संथाल, मुंडा व उरांव-जनजातियाँ मिलती हैं। ये सभी जनजातियां प्रोट्रोआस्ट्रेलायड प्रजाति से संबंधित हैं।

इनका रंग काला अथवा गहरा भूरा रंग , सिर लंबा, चौड़ी-छोटी व दबी नाक व हल्के घुघराले बाल होते हैं। ये बी-रक्त समूह के होते हैं। ये ऑस्ट्रिक भाषा परिवार के हैं तथा कोल व मुंडा भाषा बोलते हैं।

(4) मध्य प्रदेश / मध्य क्षेत्र की जनजातियां

इसके अंतर्गत छत्तीसगढ़ व मध्य प्रदेश, , पश्चिमी राजस्थान व उत्तरी आंध्र प्रदेश की जनजातियाँ आती हैं | छत्तीसगढ़ की प्रमुख जनजातियां, गोंड, बैगा, मारिया और अबूझमारिया है |

मध्य प्रदेश के मंडला जिला व छत्तीसगढ़ के बस्तर जिला में इनका सकेन्द्रण अधिक है। पूर्वी आंध्र प्रदेश में भी ये जनजातियां मिलती हैं। ये सभी जनजातियाँ प्रोट्रो-आस्ट्रेलायड से संबंधित हैं।

(5) पश्चिमी क्षेत्र की जनजातियां

इसके अंतर्गत गुजरात, राजस्थान, पश्चिमी मध्य प्रदेश व महाराष्ट्र की जनजातियाँ आती हैं।

भील, गरासिया मीणा, बंजारा, सांसी व सहारिया राजस्थान की महादेवकोली, बाली व डब्ला गुजरात एवं पश्चिमी मध्य प्रदेश की जनजातियां हैं।

ये सभी जनजातियाँ प्रोट्रो-आस्ट्रेलायड प्रजाति की हैं। ये सभी आस्ट्रिक भाषा परिवार की बोलियाँ बोलती हैं।

(6) दक्षिणी क्षेत्र की जनजातियां

इसके अंतर्गत मध्य व दक्षिणी पश्चिमी घाट की जनजातियां आती हैं, जो 20° उत्तरी अक्षांश से दक्षिण की ओर फैली हैं।

तेलंगाना, कर्नाटक, पश्चिमी तमिलनाडु और केरल की जनजातियाँ इसके अंतर्गत आती हैं। नीलगिरि के क्षेत्र में टोडा, कोटा व बदागा सबसे महत्वपूर्ण जनजातियाँ हैं। टोडा जनजाति में बहुपति प्रथा प्रचलित है।

कुरूम्बा, कादार, पनियण, चेचूँ, अल्लार, नायक, चेट्टी आदि जनजातियाँ दक्षिणी क्षेत्र की अन्य महत्वपूर्ण जनजातियाँ हैं। ये नीग्रिटो प्रजाति से संबंधित हैं। इनका ब्लड ग्रुप A है। ये द्रविड़ भाषा परिवार की बोलियाँ बोलती हैं।

(7) द्वीपीय क्षेत्र की जनजातियां

इसके अंतर्गत अंडमान-निकोबार एवं लक्षद्वीप समूहों की जनजातियाँ आती हैं। अंडमान-निकोबार की शोम्पेन, ओन्गे, जारवा व सेंटीनली महत्वपूर्ण जनजातियाँ हैं, जो अब धीरे-धीरे विलुप्त हो रही हैं। ये नीग्रिटो प्रजाति से संबंधित हैं। मछली पकड़ना , शिकार करना, कंद मूल संग्रह करना आदि इनका जीवनयापन का आधार है।

उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड की जनजातियाँ

यहाँ की प्रमुख जनजातियाँ भोटिया, थारू, बुक्सा, जौनसारी, राजी, शौका, खरवार और माहीगीर हैं। उत्तराखंड के नैनीताल में जनजातियों की संख्या सर्वाधिक है। उसके बाद देहरादून का स्थान आता है।

(1) थारू : ये नैनीताल से लेकर गोरखपुर एवं तराई क्षेत्र में रहती है एवं किरात वंश की है। इनमें संयुक्त परिवार प्रथा है। कई परिवार ऐसे भी हैं, जिनमें सदस्यों की संख्या पाँच सौ तक है।

(2) बुक्सा : उत्तराखंड के नैनीताल, पौड़ी, गढ़वाल, देहरादून जिलों में ये पाए जाते है। इनका संबंध पतवार राजपूत घराने से माना जाता है। ये हिंदी भाषा बोलते हैं। हिन्दुओं की तरह इनमें भी अनुलोम व प्रतिलोम विवाह प्रचलित है।

(3) राजी अथवा बनरौतः उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जनपद में पायी जाने वाली कोल-किरात जातियाँ हैं। ये हिन्दू हैं एवं झूमिंग ( स्थानांतरी कृषि ) प्रथा से कृषि करते हैं।

(4) खरवार : उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में निवास करने वाली यह खूँखार व बलिष्ठ जनजाति है।

(5) जौनसारी : ये उत्तराखंड के देहरादून, टेहरी-गढ़वाल, उत्तरकाशी क्षेत्र में मिलते हैं। ये भूमध्यसागरीय क्षेत्रों से संबंधित हैं। इनमें बहुपति विवाह प्रथा पाई जाती है।

(6) भोटिया : उत्तराखंड के अल्मोड़ा, चमोली, पिथौरागढ़ और उत्तरकाशी क्षेत्रों में पायी जाने वाली ये जनजाति मंगोल प्रजाति की है | यह जनजाति ऋतु-प्रवास करती है |

मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ की जनजातिया

गोंड, मुंडा, कोरकू, कोरबा, कोल, सहरिया, हल्वा, मारिया, बिरहोर, भूमियाँ, ओरांव, मीणा आदि यहाँ की प्रमुख जनजातियाँ हैं। छत्तीसगढ़ का बस्तर जिला कुल जनजाति जनसंख्या की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। झाबुआ जिला जनजातीय जनसंख्या प्रतिशत के अनुसार सर्वोपरि है।

(1) गोंड : भारत की जनजातियों में गोंड जनजाति सबसे बड़ी जनजाति है। यह प्राक-द्रविड़ प्रजाति की है। इनकी त्वचा का रंग काला, बाल काले, होंठ मोटे, नाक बड़ी व फैली हुई होती है। यह मुख्यतः छत्तीसगढ़ के बस्तर, चांदा, दुर्ग जिलों में मिलती है। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना व उड़ीसा में भी इनकी कुछ जनसंख्या है।

(2) मारिया : मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ के छिंदवाड़ा, जबलपुर और बिलासपुर जिलों में रहनेवाली इस जनजाति की शरीर रचना गोंड जनजाति के समान है।

(3) कोल : मध्य प्रदेश के रीवा क्षेत्र और जबलपुर जिले में निवास करने वाली इस जनजाति का मुख्य पेशा कृषि है।

(4) कोरबा : यह छत्तीसगढ़ के बिलासपुर, सरगुजा और रायगढ़ जिलों में निवास करने वाली जनजाति है। झारखंड राज्य के पलामू जिले में भी यह मिलती है |

ये मुख्यतः जंगली कंद-मूल एवं शिकार पर निर्भर रहते हैं। कोरबा कृषक भी है। कोरबा जनजाति का मुख्य त्यौहार करमा है। इनमें सर्प पूजा की प्रथा प्रचलित है।

(5) सहरिया : मध्य प्रदेश के गुना, शिवपुरी व मुरैना जिलों में निवास करने वाली ये जनजातियां कंदमूल व शहद संग्रह कर जीविका निर्वहन करती हैं।

(6) हल्वा : छत्तीसगढ़ के रायपुर व बस्तर जिलों में निवास करने वाली जनजाति है | इनकी बोली में मराठी भाषा के शब्दों का आधिक्य है। ये लोग कृषक हैं।

(7) कोरकु : यह भी मुंडा या कोलेरियन जनजाति की शाखा है एवं मध्य प्रदेश के निमाड़, होशंगाबाद, बैतूल, छिंदवाड़ा जिलों में निवास करती हैं। ये कृषक हैं ।

राजस्थान की जनजातियां

राजस्थान के दक्षिण-पूर्व व दक्षिणी क्षेत्र में यहाँ की अधिकांश जनजातीय आबादी निवास करती हैं। यहाँ की जनजातियों में मीणा, सहरिया, गरासिया। दमोर, सांसी आदि प्रमुख हैं।

(1) मीणा : राजस्थान में इस जनजाति की सर्वाधिक संख्या पाई जाती है। ये मुख्यत: जयपुर, सवाई माधोपुर, उदयपुर, अलवर चित्तौड़गढ़, कोटा, बूंदी व डूंगरपुर जिलों में रहते हैं।

पौराणिक मान्यताओं के आधार पर इस जनजाति का संबंध भगवान मत्स्यावतार से है। मीणा जनजाति शिव व शक्ति की उपासक है |

(2) भील : यह राजस्थान की दूसरी प्रमुख जनजाति है। यह बाँसवाड़ा, डूगरपुर, उदयपुर, सिरोही, चित्तौड़गढ़ भीलवाड़ा जिलों में निवास करती हैं। भील का अर्थ – धनुषधारी |

ये स्वयं को महादेव की संतान मानते हैं। भील जनजाति प्रोटो-आस्ट्रेलॉयड प्रजाति की हैं। इनका कद छोटा व मध्यम, आँखें लाल, बाल रूखे व जबड़ा कुछ बाहर निकला होता है। भीलों में संयुक्त परिवार प्रथा प्रचलित है। ये सामान्यतः कृषक हैं।

(3) गरासिया : मीणा व भील के बाद यह राजस्थान की तीसरी प्रमुख जनजाति है। ये लोग मुख्यतः दक्षिणी राजस्थान में रहते हैं । ये चौहान राजपूतों के वंशज हैं, परंतु अब भीलों के समान आदिम प्रकार का जीवन व्यतीत करने लगे हैं। इनमें मोर बंधिया, पहरावना व ताणना तीन प्रकार के विवाह प्रचलित हैं ।

(4) साँसी : यह राजस्थान के भरतपुर जिले में रहने वाले खानाबदोश जनजाति है।

झारखंड की जनजातियां

राँची, संथाल परगना व सिंहभूम जिलों में जनजातियों की संख्या सर्वाधिक है। देवघर, गिरिडीह, पलामू, गोड्डा, हजारीबाग, धनबाद, आदि भी जनजातीय आबादी की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं ।

झारखंड की जनजातियों में संथाल सबसे प्रमुख है। उरांव, मुंडा, हो, भूमिज, खड़िया, सौरिया, पहाड़िया, विरहोर, कोरबा, खोंड, खरवार, असुर, जैगा आदि अन्य प्रमुख जनजातियाँ हैं।

(1) संथाल : यह भारत की एक प्रमुख जनजाति व झारखंड की सर्वप्रमुख जनजाति है। यह बंगाल, उड़ीसा व असम राज्यों में भी पाई जाती हैं।

ये झारखंड में मुख्यतः संथाल परगना, रांची, सिंहभूम, हजारीबाग, धनबाद आदि जिलों में रहते हैं। संथाल आस्ट्रेलॉयड और द्रविड़ प्रजाति के होते हैं। ये ‘मुंडा’ भाषा बोलते हैं व प्रकृतिपूजक हैं। ब्राह्मण, सोहरई व सकरात इनके मुख्य पर्व हैं।

(2) कोरबा : ये झारखंड के पलामू जिले में पाये जाते हैं। मध्य प्रदेश में भी ये निवास कर रहे हैं। यह जनजाति कोलेरियन जनजाति से संबंध रखती है।

(3) उराँव : यह भी झारखंड की प्रमुख जनजातियों में से एक है। इनका संबंध प्रोटो-आस्ट्रेलॉयड प्रजाति से हैं। ये ‘कुरूख’ भाषा बोलते हैं, जो मुंडा भाषा से मिलती-जुलती है। ये मुख्यतः संथाल परगना व रोहतास जिलों में रहते हैं। शिकार, मछली पकड़ना व कृषि इनका व्यवसाय है।

(4) असुर : ये मुख्यतः सिंहभूम जिले में रहते हैं। ये मुंडा वर्ग की ‘मालेटा’ भाषा बोलते हैं | लोहा गलाना, शिकार करना, मछली पकड़ना, खाद्य संग्रह करना व कृषि इनका मुख्य व्यवसाय है |

(5) सौरिया पहाड़िया : यह जनजाति संथाल परगना, गोड्डा, राजमहल आदि जिलों में निवास करती है | यह कृषक जनजाति है।

(6) पहाड़ी खड़िया : सिंहभूम जिले की पहाड़ियों में निवास
करने वाली यह जनजाति खाद्य संग्रह, बागवानी व कृषि पर निर्भर है।

(7) खरवार : यह लड़ाकू व वीर जनजाति है तथा झारखंड के पलामू व हजारीबाग जिले में मिलती है।

(8) मुंडा : ये भी झारखंड की प्रमुख जातियों में से है। इनकी अनेक उपजातियाँ हैं।

नागा जनजाति

ये नागालैंड, मणिपुर व अरुणाचल प्रदेश की जनजाति हैं एवं इंडो-मंगोलॉयड प्रजाति से संबंध रखती हैं। ये अधिकांशत: नग्नावस्था में घूमते हैं।

कृषि, पशुपालन व मुर्गीपालन इनका मुख्य व्यवसाय है। ये झूमिंग कृषि करते हैं।

टोंडा जनजाति

ये तमिलनाडु की नीलगिरि व उटकमंडक पहाड़ियों में निवास करने वाली जनजाति हैं। इनका संबंध भूमध्यसागरीय प्रजाति से है।

ये हृष्ट-पुष्ट, सुन्दर व गोरे होते हैं। इनका मुख्य व्यवसाय पशुचारण है। टोडा जनजाति में बहुपति प्रथा प्रचलित है।

शोम्पेन, सेन्टीनली, ओंगे व जारवा जनजाति

अंडमान निकोबार की विलुप्त होती जा रही जनजातियाँ हैं। ये नीग्रिटो प्रजाति से संबंधित हैं।

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