भारत में बाढ़ और अनावृष्टि के प्रमुख कारण

भारत में बाढ़ और अनावृष्टि के कारण

भारत क्षेत्रफल की दृष्टि से एक विशाल देश है | भौगोलिक दृष्टि से इसमें अनेक विभिन्नतायें पाई जाती हैं | यही कारण है भारत में वर्षा की मात्रा भी एक समान नहीं है | इसके विभिन्न भागों में बाढ़ के साथ-साथ अनावृष्टि भी देखी जा सकती है | भारत में बाढ़ तथा अनावृष्टि के अनेक कारण हैं |

बाढ़ (Floods)

साधारण शब्दों में बाढ़ वह स्थिति है, जब नदी के मार्ग अथवा तटीय भागों के वे भाग जलमग्न हो जाए, जहां सामान्यतः जल नहीं भरता।

बाढ़ के कारण

बाढ़ प्राकृतिक तथा मानवीय दोनों ही कारणों से आती है। बाढ़ के कारणों का संक्षिप्त वर्णन नीचे दिया गया है —

(क) प्राकृतिक कारण (Natural Causes)

(1) भारी तथा निरंतर वर्षा

जब दक्षिण-पश्चिमी मानसून पवनों द्वारा काफी लम्बी अवधि तक भारी वर्षा होती है, तो बाढ़ आती है। भारत में सामान्यतः 115 सेमी. वार्षिक वर्षा होती है, जो विश्व के किसी भी इतने बड़े देश के लिए सबसे अधिक है। 78° पूर्वी देशांतर के पूर्व में वर्षा सदा 100 सेमी. से अधिक होती है। इस वर्षा का लगभग 80% भाग दक्षिण-पश्चिमी मानसून द्वारा जून से सितंबर तक प्राप्त किया जाता है। जबकि वर्ष की शेष अवधि में इन नदियों का अधिकांश भाग सूखा रहता है।

पश्चिमी तटीय मैदान एवं पश्चिमी घाट की पश्चिमी ढलानों पर 250 सेमी. से अधिक वर्षा होती है और वहां पर बाढ़ का खतरा सदा ही बना रहता हैं।

उत्तर-पूर्वी राज्यों में ब्रह्मपुत्र तथा उसकी सहायक नदियों के जल ग्रहण क्षेत्र में कहीं-कहीं 500 सेमी. से भी अधिक वर्षा होती है। इस कारण ब्रह्मपुत्र घाटी में लगभग हर वर्ष बाढ़ आती है।

(2) बादलों का फटना (Cloudbursts)

अल्पाविधि में अत्यधिक वर्षा होने की घटना को बादलों का फटना कहते हैं। हिमालय क्षेत्र, उड़ीसा तथा मध्य एवं पश्चिमी भारत में बादलों का फटना एक साधारण घटना है।

(3) उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात

तटीय भागों, विशेषत: आंध्र प्रदेश, उड़ीसा तथा गुजरात के तटीय भागों, में बाढ़ का सबसे बड़ा कारण बंगाल की खाड़ी तथा अरब सागर से उठने वाले उष्णकटिबंधीय चक्रवात हैं।

(4) विस्तृत जल ग्रहण क्षेत्र

भारत की अधिकांश नदियों के जल ग्रहण क्षेत्र बड़े विस्तृत हैं, जिससे मध्य व निम्न नदी घाटियों में भारी मात्रा में जल भर जाता है। गंगा तथा गोदावरी जैसी बड़ी नदियों में यह बाढ़ का बहुत बड़ा कारण है।

(5) नदी के प्रवाह में अवरोध

प्राय: भूस्खलन, तलछट के जमाव, नदी विसर्पण आदि से नदी के प्रवाह में अवरोध पैदा हो जाता है। इस अवरोध के कारण नदी में जल तब तक भरता रहता है, जब तक उसमें अवरोध को तोड़ने की शक्ति नहीं आ जाती। अवरोध टूटने के बाद नदी का जल बड़ी तीव्र गति से बहता है और आस-पास के क्षेत्रों में फैल जाता है। इस प्रकार बड़े क्षेत्र में बाढ़ आ जाती है।

(ख) मानवीय कारण (Human Causes)

प्राकृतिक कारणों के साथ-साथ मानव के अनुचित कार्यकलापों ने भी बाढ़ों में वृद्धि की है। इसके मुख्य कारण निम्नलिखित हैं —

(1) वनों को अंधाधुंध काटना

मनुष्य द्वारा अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए वनों को अन्धाधुन्ध काटता है। पेड़ों की जड़ें वर्षा के जल को सोख लेती हैं, जिससे जल भूमिगत हो जाता है। परिणामस्वरूप धरातलीय जल प्रवाह कम हो जाता है और बाढ़ की स्थिति उत्पन्न नहीं होती। वनों के अभाव से धरातलीय जल प्रवाह बढ़ जाता है और बाढ़े आती हैं।

शिवालिक, लघु हिमालय, छोटा नागपुर पठार, पश्चिमी घाट तथा अन्य कई क्षेत्रों में वनों के काटे जाने से बाढ़ों क आवृत्ति तथा उनकी विभीषिका में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।

(2) दोषपूर्ण जुताई

भारत के अधिकांश भागों में कृषि के लिए भूमि की जुताई ढाल की दिशा में की जाती है | जब वर्षा होती है तो जल ढाल की दिशा में आसानी से बह जाता है और बाढ़ आ जाती है | इससे बचने के लिए भूमि की जुताई ढाल की लंबवत दिशा में करनी चाहिए इसे कंटूर कृषि ( Contour Ploughing ) कहते हैं |

(3) दोषपूर्ण संचाई

पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तरप्रदेश में सिंचाई के लिए नहरों का जाल बिछाया गया है | इन नहरों से पानी रिस-रिसकर निकटवर्ती क्षेत्रों में फैल जाता है | इससे भूमिगत जल स्तर ऊपर उठता है और जल क्रांति ( Water Logging ) में वृद्धि होती है ऐसी अवस्था में थोड़ी सी वर्षा होने पर भी बाढ़ आ सकती है |

(4) बाढ़ के अन्य कारण

जनसंख्या वृद्धि तथा आधुनिकीकरण के कारण बढ़ते हुए नगरीकरण से भी बाढ़ आती है | नगरों का कूड़ा-करकट नदियों में फेंक दिया जाता है | इससे नदी के प्रवाह में अवरोध पैदा हो जाता है और बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है |

नदियों पर पूलों, सड़कों तथा अन्य निर्माण कार्यों से भी नदी के प्रवाह में गतिरोध पैदा हो जाता है | इससे जल एकत्रित होने तथा बाढ़ आने की संभावना बढ़ जाती है |

बाढ़ों की रोकथाम (Flood Control )

सन 1954 की भीषण बाढ़ के पश्चात यह महसूस किया गया कि बाढ़ों की रोकथाम करना आवश्यक है। इस उद्देश्य से सन 1954 में ही राष्ट्रीय बाढ़-नियंत्रण योजना (National Flood Control Programme) शुरू की गई। इस कार्यक्रम के सन 1954 में शुरू होने से अब तक 16,199 किमी. लम्बे नए तटबंधों का निर्माण किया गया।

बाढ़ों पर नियंत्रण पाने का सबसे अच्छा उपाय नदियों के उद्गम क्षेत्रों में वन लगाना है। वन लगाने से हमें सूखा तथा बाढ़ दोनों से ही मुक्ति मिल सकती है। जिन नदियों की घाटियों में अधिक मात्रा में अवसाद का निक्षेप होता है, वहां से रेत-मिट्टी को हटाने के उपाय होने चाहिए, ताकि नदी-घाटी की जल-ग्रहण क्षमता बढ़ सके और जल सुगमता से प्रवाहित हो सके। इससे बाढ़ों का प्रकोप काफी कम हो सकता है।

सूखा (Drought)

सूखा वह स्थिति है, जब वर्षा आवश्यकता से कम होती है। इस स्थिति में धरातलीय एवं भूमिगत जल कम हो जाता है, जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।

सामान्यतः सूखा निम्न प्रकार का होता है —

(1) मौसम विज्ञान संबंधी सूखा

मौसम विज्ञान संबंधी सूखे की अवस्था तब उत्पन्न होती है, जब व्यापक क्षेत्र में वर्षा सामान्य से कम हो।

भारतीय मौसम विभाग (Indian Meteorological Department) के अनुसार यदि दक्षिण-पश्चिम मानसून पवनों द्वारा वर्षा सामान्य से 26-50 प्रतिशत कम हो तो सूखा पड़ता है; परन्तु यदि वर्षा में 50 प्रतिशत से अधिक की कमी है, तो भीषण सूखा पड़ता है।

(2) जलवैज्ञानिक सूखा

जलवैज्ञानिक सूखे की स्थिति में जल के स्रोत सूख जाते हैं। नदियों, झीलों, जलाशयों आदि धरातलीय स्रोतों के सूखने के साथ-साथ भूमिगत जल स्तर भी गिर जाता है।

इसे भौम जल सूखा (Ground Water Drought) कहते हैं। जल वैज्ञानिक सूखा तब पड़ता है, जब मौसम विज्ञान संबंधी सूखे की अवधि बड़ी लम्बी हो जाती है।

(3) कृषि अथवा मृदा जल संबंधी सूखा

जब मिट्टी में नमी कम हो जाती है या मिट्टी में नमी का संरक्षण करने की शक्ति क्षीण हो जाती है, तो कृषि अथवा मृदा अथवा जल संबंधी सूखा पड़ता है। इस स्थिति में मिट्टी सूख जाती ह और भूमि शुष्क हो जाती है।

(4) पारिस्थितिकीय सूखा

जब प्राकृतिक पारिस्थितिकीय तंत्र में जल की कमी से उत्पादकता में कमी हो जाती है और परिणामस्वरूप पारिस्थितिकीय तंत्र में तनाव आ जाता है तथा यह क्षतिग्रस्त हो जाता है, तो पारिस्थितिकीय सूखा
कहलाता है।

भारत में सूखा

भारत में सूखा दक्षिण-पश्चिमी मानसून के कमजोर होने से पड़ता है। देश में दक्षिण-पश्चिमी मानसून द्वारा सामान्य से कम वर्षा करने अथवा अपने निश्चित समय से देर से आने के कारण सूखे की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

प्राय: देश के किसी-न-किसी भाग में सूखा पड़ता ही रहता है। सन 1877 से 1987 के बीच 110 वर्ष की अवधि मे 23 बार सूखा पड़ा है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि भारत में औसतन प्रति 5 वर्षों में एक वर्ष सूखे का वर्ष होता है।

सूखे का सबसे अधिक प्रभाव राजस्थान व इसके निकटवर्ती हरियाणा एवं मध्य प्रदेश के क्षेत्र, गुजरात के अधिकांश भाग, मध्यवर्ती महाराष्ट्र, तेलंगाना, पूर्वी व मध्यवर्ती कर्नाटक, पश्चिमी व मध्य तमिलनाडु तथा आन्ध्र प्रदेश में पड़ता है।

इसके अतिरिक्त पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा उत्तराखंड के कुछ क्षेत्रों में भी कभी-कभी सूखा पड़ जाता है। इन क्षेत्रों में औसत वार्षिक वर्षा 100 सेमी. से कम होती है और पर्याप्त सिंचाई उपलब्ध नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं है कि देश के अन्य भाग सूखे से बचे हुए हैं।

देश के किसी भी भाग में वर्षा अपनी निश्चित मात्रा से कम हो सकती है और सूखे की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।

अनुमान है कि सामान्यतः भारत का 16 प्रतिशत क्षेत्र तथा इसकी 12% जनसंख्या प्रति वर्ष सूखे से प्रभावित होती है |

सूखे की तीव्रता के अनुसार सूखा प्रभावित क्षेत्रों को निम्नलिखित तीन वर्गों में बांटा जाता है —

(1) अत्यधिक सूखा प्रभावित क्षेत्र

राजस्थान में अधिकाश भाग विशेषकर अरावली के पश्चिम में स्थिति मरुस्थली और गुजरात का कच्छ क्षेत्र अत्यधिक सूखा प्रभावित है। इसमें राजस्थान के जैसलमेर और बाड़मेर जिले भी सम्मिलित हैं, जहां औसत वार्षिक वर्षा 9 सेमी. से कम होती है।

(2) अधिक सूखा प्रभावित क्षेत्र

इस वर्ग में राजस्थान के पूर्वी भाग, मध्य प्रदेश के अधिकांश भाग, महाराष्ट्र के पूर्वी भाग, आंध्र प्रदेश के आंतरिक भाग, तेलंगाना का पूर्वी भाग, कर्नाटक का पठार, तमिलनाडु के उत्तरी भाग, झारखंड का दक्षिणी भाग और ओडिशा का आंतरिक भाग सम्मिलित है।

(3) मध्यम सूखा प्रभावित क्षेत्र

इस वर्ग में राजस्थान के उत्तरी हरियाणा, उत्तर प्रदेश के दक्षिणी जिले, गुजरात के कुछ जिले, कोंकण को छोड़कर महाराष्ट्र, झारखंड, तमिलनाडु के कोयंबटूर पठार और आंतरिक कर्नाटक शामिल हैं।

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भारत का भौगोलिक परिचय

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