कामायनी ( जयशंकर प्रसाद ) – आनन्द सर्ग

( ‘कामायनी’ जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित प्रसिद्ध महाकाव्य है | सन 1936 में प्रकाशित यह महाकाव्य आलोचनात्मक दृष्टि से खड़ी बोली हिंदी का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य माना जाता है | )

कामायनी ( जयशंकर प्रसाद )
कामायनी ( जयशंकर प्रसाद )

चलता था धीरे-धीरे, वह एक यात्रियों का दल;
सरिता के रम्य पुलिन में, गिरि पथ से, ले निज संबल ।
था सोम लता से आवृत्त, वृष धवल धर्म का प्रतिनिधि;
घंटा बजता तालों में, उसकी थी मंथर गति विधि ।

वृष रज्जु वाम कर में था, दक्षिण त्रिशूल से शोभित;
मानव था साथ उसी के, मुख पर था तेज अपरिमित।
केहरि किशोर से अभिनव, अवयव प्रस्फुटित हुए थे;
यौवन गंभीर हुआ था, जिसमें कुछ भाव नये थे ।

चल रही इड़ा भी वृष के, दूसरे पार्श्व में नीरव;
गैरिक वसना संध्या-सी, जिसके चुप थे सब कलरव।
उल्लास रहा युवकों का, शिशु गण का था मृदु कलकल;
महिला मंगल गानों से, मुखरित था वह यात्री दल।

चमरों पर बोझ लदे थे, वे चलते थे मिल अविरल;
कुछ शिशु भी बैठ उन्हीं पर, अपने ही बने कुतूहल । माताएं पकड़े उनको बातें थी करती जाती ; ‘हम कहाँ चल रहे’ यह सब उनको विधिवत समझाती |

कह रहा एक था “तू तो, कब से ही सुना रही है- अब आ पहुँची लो देखो, आगे वह भूमि यही है।
पर बढ़ती ही चलती है, रुकने का नाम नहीं है,
वह तीर्थ कहाँ है कह तो, जिसके हित दौड़ रही है।”

“वह अगला समतल जिस पर, है देवदारु का कानन;
घन अपनी प्याली भरते, ले जिसके दल से हिमकन ?
हां इसी ढालवें को जब, बस सहज उतर जावें हम;
फिर सम्मुख तीर्थ मिलेगा, वह अति उज्ज्वल पावनतम।”

वह इड़ा समीप पहुंचकर, बोला उसको रुकने को;
बालक था, मचल गया था, कुछ और कथा सुनने को।
वह अपलक लोचन अपने, पदाग्र विलोकन करती;
पथ प्रदर्शिका-सी चलती, धीरे-धीरे डग भरती।

बोली, “हम जहां चले हैं, वह है जगती का पावन;
साधन प्रदेश किसी का, शीतल अति शांत तपोवना’
“कैसा? क्यों शांत तपोवन? विस्तृत क्यों नहीं बताती
बालक ने कहा इड़ा से, वह बोली कुछ सकुचाती।

“सुनती हूँ एक मनस्वी, था वहाँ एक दिन आया;
वह जगती की ज्वाला से, अति विकल रहा झुलसाया।
उसकी वह जलन भयानक, फैली गिरि अंचल में फिर;
दावाग्नि प्रखर लपटों ने, कर दिया सघन बन अस्थिर।

थी अर्धांगिनी उसी की, जो उसे खोजती आयी;
यह दशा देख, करुणा की, वर्षा दृग में भर लायो ।
वरदान बने फिर उसके, आँसू करते जग मंगल;
सब ताप शांत होकर, वन हो गया हरित सुख शीतल।

गिरि निर्झर चले उछलते, छाया फिर से हरियाली;
सूखे तरु कुछ मुसकाये, फूटी पल्लव में लाली।
के युगल वहीं अब बैठे, संसृति की सेवा करते;
atष और देकर सब, की दुःख ज्वाला हरते ।

है वहाँ महाहृद निर्मल, जो मन की प्यास बुझाता;
मानस उसको कहते हैं, सुख पाता जो है जाता।”
“तो यह वृष क्यों तू यों, ही वैसे ही चल रही है;
क्यों बैठ न जाती इस पर, अपने को थका रही है।”

“सारस्वत नगर निवासी, हम आये यात्रा करने;
यह व्यर्थ रिक्त जीवन घट, पीयूष सलिल से भरने।
इस वृषभ धर्म प्रतिनिधि को, उत्सर्ग करेंगे जाकर।
चिर मुक्त रहे यह निर्भय, स्वछंद सदा सुख पाकर।”

सब सम्हल गये थे आगे, थी कुछ नीची उतरायी;
जिस समतल घाटी में वह, भी हरियाली से छायी।
श्रम, ताप और पथ पीड़ा, क्षण भर में थे अंतर्हित;
सामने विराट धवल नग, अपनी महिमा से विलसित।

उसकी तलहटी मनोहर, श्यामल तृण वीरुष वाली;
नव कुंज, गुहा, गृह सुंदर, हद से भर रही निराली।
वह मंजरियों का कानन, कुछ अरुण पीत हरियाली;
प्रतिपर्व सुमन संकुल थे, छिप गई उन्हीं में डाली।

यात्री दल ने रुक देखा, मानस का दृश्य निराला;
खग मृग को अति सुखदायक, छोटा-सा जगत उजाला।
मरकत की वेदी पर ज्यों, रखा हीरे का पानी;
छोटा-सा मुकुर प्रकृति का, या. सोयी राका रानी।

दिनकर गिरि के पीछे अब, हिमकर था चढ़ा गगन में;
कैलास प्रदोष प्रभा में, स्थिर बैठा किसी लगन में । संध्या समीप आयी थी, उस सर के वल्कल वसना ; तारों से अलक गुँथी थी, पहले कदम्ब की रशना |

खग कुल किलकार रहे थे, कलहंस कर रहे कलरव;
किनरियाँ बनीं प्रतिध्वनि, लेती थी तानें अभिनव
मनु बैठे ध्यान निरत थे, उस निर्मल मानस तट में;
सुमनों की अंजलि भर कर, श्रद्धा थी खड़ी निकट में।

श्रद्धा ने सुमन बिखेरा, शत-शत मधुपों का गुंजन;
भर उठा मनोहर नभ में, मनु तन्मय बैठे उनमन।
पहचान लिया था सन ने, फिर कैसे अब वे रुकते;
वह देव-द्वन्द्व युतिपय था, फिर क्यों न प्रणति में झुकते ।

तब वृषभ सोमवाही भी, अपनी घंटा-ध्वनि करता;
बढ़ चला इड़ा के पीछे, मानव भी था डग भरता।
हाँ इड़ा आज भूली थी, पर क्षमा न चाह रही थी;
वह दृश्य देखने को निज, दृग युगल सराह रही थी।

चिर मिलित प्रकृति से पुलकित, वह चेतन पुरुष पुरातन;
निज शक्ति तरंगायित था, आनंद-अंबु-निधि शोभना
भर रहा अंक श्रद्धा का, मानव उसको अपना कर;
था इड़ा शीश चरणों पर, वह पुलक भरी गद्गद स्वर-

बोली-“मैं धन्य हुई हूँ, जो यहाँ भूल कर आयी;
हे देवि! तुम्हारी ममता, बस मुझे खींचती लायी ।
भगवति, ममझी मैं! सचमुच, कुछ भी न समझ थी मुझको;
सब को ही भुला रही थी, अभ्यास यही था मुझको ।

हम एक कुटुंब बना कर, यात्रा करने हैं आये;
सुनकर यह दिव्य तपोवन, जिसमें अब अघ छुट जाये।”
मनु ने कुछ-कुछ मुसक्याकर, कैलास ओर दिखलाया ;
बोले “देखा कि यहाँ पर, कोई भी नहीं पराया ।

हम अन्य न और कुटुंबी, हम केवल एक हमीं हैं।
तुम सब मेरे अवयव हो, जिसमें कुछ नहीं कमी है।
शापित न यहाँ है कोई, तापित पापी न यहाँ है;
जीवन वसुधा समतल है, समरस है जो कि जहाँ है।

चेतन समुद्र में जीवन, लहरों-सा बिखर पड़ा है।
कुछ छाप व्यक्तिगत अपना, निर्मित आकार खड़ा है।
इस ज्योत्स्ना के जलनिधि में, बुदबुद-सा रूप बनाये;
नक्षत्र दिखायी देते, अपनी आभा चमकाये ।

वैसे अभेद सागर में, प्राणों का सृष्टि-क्रम हैं;
सब में घुल मिल कर रसमय, रहता यह भाव चरम है।
अपने दुःख-सुख से पुलकित, यह मूर्त विश्व सचराचर;
चिति का विराट वपु मंगल, यह सत्य चिर सुंदर।

सब की सेवा न परायी, वह अपनी सुख संसृति है;
अपना ही अणु-अणु कण-कण, द्वयता ही तो विस्मृति है।
मैं की मेरी चेतनता, सबको ही स्पर्श किये सी;
सब भिन्न परिस्थितियों की, है मादक घूँट पिये सी।

जग ले ऊषा के दृग में, सो ले निशि की पलकों में
हाँ स्वज देख ले सुंदर, उलझन वाली अलकों में
चेतन का साक्षी मानव, हो निर्विकार हंसता सा;
मानस के मधुर मिलन में, गहरे-गहरे धंसता सा।

सब भेद-भाव भुलवा कर, दुःख-सुख को दृश्य बनाता;
मानव कह रे! ‘यह मैं हूँ’, वह विश्व नीड़ बन जाता।’
श्रद्धा के मधु अधरों की, छोटी-छोटी रेखाएँ।
रागारुण किरण कला-सी, विकसीं बन स्मिति लेखाएँ।

वह कामायनी जगत की, मंगल कामना अकेली;
थी ज्योतिष्मती प्रफुल्लित, मानस तट की वन बेली। यह विश्व चेतना पुलकित थी, थी पूर्ण काम की प्रतिमा ; जैसे गंभीर महाहृद, से भरा विमल जल महिमा |

जिस मुरली के निस्वन से, यह शून्य रागमय होता;
वह कामायनी विहँसती, अग जग था मुखरित होता।
क्षण भर में सब परिवर्तित, अणु अणु थे विश्व कमल के
पिंगल पराग से मचले, आनंद सुधा रस छलके ।

अति मधुर गंधवह बहता, परिमल बूंदों से सिंचित;
सुख स्पर्श कमल केसर का, कर आया रज से रंजित।
जैसे असंख्य मुकुलों का, मादन विकास कर आया
उनके अछूत अधरों का, कितना चुंबन भर लाया।

रुक-रुक कर कुछ इठलाता, जैसे कुछ ही वह भूला;
नव कनक-कुसुम रज धूसर, मकरंद जलद सा फूला।
जैसे वन लक्ष्मी ने ही, बिखराया हो केसर रज;
या हेमकूट हिम जल में, झलकता परछाई निज ।

संसृति के मधुर मिलन के, उच्छ्वास बना कर निज दल;
चल पड़े गगन आंगन में, कुछ गाते अभिनव मंगल।
वल्लरियाँ नृत्य निरत थीं, बिखरी सुगंध की लहरें;
फिर वेणु रंध्र से उठ कर, मूर्छना कहाँ अब ठहरे ।

गूंजते मधुर नूपुर से, मदमाते होकर मधुकर,
वाणी की वीणा ध्वनि-सी, भर उठी शून्य में झिलक।
उन्माद माधव मलयानिल, दौड़े सब गिरते पड़ते;
परिमल से चली नहा कर, काकली सुमन थे झड़ते ।

सिकुड़न कौशेय वसन की, थी विश्व सुंदरी तन पर;
या मादन मृदुतम कंपन, छायी संपूर्ण सृजन पर।
सुख सहचर दुःख विदूषक, परिहास पूर्ण कर अभिनय;
सब की विस्मृति के पट में, छिप बैठा था अब निर्भय ।

थे डाल डाल में मधुमय, मृदु मुकुल बने झालर से;
रस भार प्रफुल्ल सुमन सब, धीरे-धीरे से बरसे ।
हिम खंड रश्मि मंडित हो, मणि दीप प्रकाश दिखाता;
जिनसे समीर टकरा कर, अति मधुर मृदंग बजाता।

संगीत मनोहर उठता, मुरली बजती जीवन की;
संकेत कामना बन कर, बतलाती दिशा मिलन की।
रश्मियां बनी अप्सरियाँ, अंतरिक्ष में नचती थीं।
परिमल का कन-कन लेकर, निज रंगमंच रचती थी।

मांसल-सी आज हुई थी, हिमवती प्रकृति पाषाणी;
उस लास रस में विह्वल, थी हंसती-सी कल्याणी।
वह चंद्र किरीट रजत नग, स्पंदित-सा पुरुष पुरातन;
देखता मानसी गौरी, लहरों का कोमल नर्तन।

प्रति फलित हुई सब आँखें, उस प्रेम ज्योति विमला से;
सब पहचाने से लगते, अपनी ही एक कला से।
समरस थे जड़ या चेतन, सुंदर साकार बना था;
चेतनता एक विलसती, आनंद अखंड घना था।

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