दूँगा मैं ( Dunga Main ) : भारत भूषण अग्रवाल

दूँगा मैं

नहीं, नहीं हिचकूँगा

कि मेरी अकिंचनता अनन्य है

कि मैं ऐसा हूँ कि मानो हूँ ही नहीं

हाँ, नहीं हिचकूँगा

कि तुम्हें तृप्त कर पाऊं : मुझ में सामर्थ्य कहाँ

कि अपने को नि:स्व करके भी

तुम्हें बांध नहीं पाऊंगा

और नहीं सोचूंगा यह भी

कि आखिर तो तुम मुझे छोड़ चले जाओगे

जैसे नदी का जल

ढूहों को तोड़ कर

छोड़ चला जाता है,

सोच छोड़

हिचक छोड़

दूँगा मैं |

देता हूँ | (1)

लो

यह लो

ओ तुम अनजाने अतिथि आज-भर के !

लो यह पराग

जो अपनी अशक्ति में मात्र गुनगुनाहट है

पर जिसे दे कर

यह मेरे ओठ समाधि बन जायेंगे,

लो यह आग

जिसकी चिनगी में जलन तो क्या

ताप भी नहीं

पर जिसे दे कर

यह मेरी अस्थि विभूति बन जायेगी,

लो मैं देता हूँ

अपना पराग-राग

आप यह अपनी

जो मैं हूँ,

जो मेरा सर्वस्व है

( पर जो नगण्य है )

बेहिचक देता हूँ

मुट्ठी पर मुट्ठी भर अपने को रीता कर देता हूँ –

लो तुम | (2)

ओ अतिथि !

यह सेवा स्वीकार करो

भूल कर कि इससे तुम्हारा काम नहीं चलने का

देता हूँ

क्योंकि तुम मेरे द्वार आये हो

और मेरे पास है देने को अपनापन,

देता हूँ

क्योंकि मैं जानता हूँ

कि तुम मुँह-अंधेरे से

इस गली के घर-घर के द्वार पर

दस्तक दे-दे कर थक गये हो –

भीतर भी चहल-पहल, राग-रँग-गूँज समारोह की

पर किसी ने सुनी नहीं तुम्हारी वह खटखटाहट

क्योंकि सब ने सोचा कि तुम तो भिखारी हो

दीन-हीन याचक

परोपजीवी,

पर मैं पहचानता हूँ

कि तुम अतिथि हो

तिथि से परे हो

इतिहास हो !

दूँगा मैं | (3)