फूल के बोल ( Fool Ke Bol ) : भारत भूषण अग्रवाल

हँसते-खिलखिलाते रंग-बिरंगे फूल

क्यारी में देख कर

जी तृप्त हो गया |

नथुनों से प्राणों तक खिंच गयी

गंध की लकीर-सी

आँखों में हो गई रंगों की बरसात ;

अनायास कह उठा :

‘वाह,

धन्य है वसंत ऋतु !’ (1)

लौटने को पैर जो बढ़ाये तो

क्यारी के कोने में दुबका एक नन्हा फूल

अचानक बोल पड़ा :

‘सुनो,

एक छोटा सा सत्य तुम्हें सौंपता हूँ |

धन्य है वसंत ऋतु, ठीक है –

पर उसकी धन्यता उसकी कमाई नहीं

वह हमने रची है,

हमने,

यानी मैंने,

मुझ-जैसे मेरे इन अनगिनत साथियों ने –

जिन्होंने इस क्यारी में अपने-अपने ठाँव पर

धूप और बरसात,

जाड़ा और पाला झेल

सूरज को तपा है पूरी आयु एक पाँव पर ! (2)

तुमने ऋतु को बखाना,

पर क्या कभी पल भर भी

तुम उस लौ को भी देख सके

जिसके बल

मैंने और इसने और उसने

यानी मेरे एक-एक साथी ने

मिट्टी का अँधेरा फोड़

सूरज से आँखें मिलायी हैं?

उसे यदि जानते तो तुमसे भी

रँग जाती एक ऋतु !’ (3)