नदी के द्वीप ( Nadi Ke Dvip ) : अज्ञेय

हम नदी के द्वीप हैं

हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाय |

वह हमें आकार देती है |

हमारे कोण, गलियां, अंतरीप, उभार, सैकत कूल,

सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं |

माँ है वह | है, इसी से हम बने हैं | (1)

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘समकालीन हिंदी कविता’ में अज्ञेय द्वारा रचित कविता ‘नदी के द्वीप’ से अवतरित है | इस कविता में द्वीप व्यष्टि तथा नदी समष्टि का प्रतीक है | कवि का कथन है कि समष्टि का अंग होते हुए भी व्यष्टि का अपना महत्व होता है |

व्याख्या — नदी के बीच स्थित छोटे-छोटे द्वीप कहते हैं कि हम अविरल प्रवाहमान नदी के द्वीप हैं | हम यह नहीं कहते कि नदी हमें छोड़कर प्रवाहित हो जाए क्योंकि नदी की जलधारा ही हमें रूप व आकार प्रदान करती है | हमारे कोण, गलियां, बीच के टीले, ऊंचाइयाँ, रेतीले किनारे, गोल घेरे आदि सभी नदी द्वारा ही निर्मित किए गए हैं ; नदी हमारी माँ है, उसी से हमारा व्यक्तित्व निर्मित व सुसज्जित हुआ है |

विशेष — (1) व्यक्ति के जीवन में समाज के महत्व को रेखांकित किया गया है |

(2) मुक्त छंद है |

(3) भाषा सरल, सहज स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(4) प्रतीकात्मक शब्दावली है | द्वीप व्यष्टि का तथा नदी समष्टि ( समाज ) का प्रतीक है |

किंतु हम हैं द्वीप |

हम धारा नहीं हैं |

स्थिर समर्पण है हमारा| हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के |

किंतु हम बहते नहीं हैं | क्योंकि बहना रेत होना है |

हम रहेंगे तो रहेंगे ही नहीं |

पैर उखड़ेंगे, प्लवन होगा, ढहेंगे, सहेंगे, बह जाएंगे |

और फिर हम पूर्ण होकर भी कभी क्या धार बन सकते?

रेत बनकर हम सलिल को तनिक गंदला ही करेंगे |

अनुपयोगी ही बनाएंगे | (2)

प्रसंग — पूर्ववत |

व्याख्या — इन पंक्तियों ने नदी के द्वीप कहते हैं कि यद्यपि हम नदी की संतान हैं क्योंकि नदी ने ही हमारे व्यक्तित्व का निर्माण किया है लेकिन इतना होने पर भी हम द्वीप हैं, हम धारा नहीं हैं क्योंकि नदी तो प्रवाहमान है लेकिन हमारा व्यक्तित्व स्थिर व ठोस है, हम प्रवाहित होने वाली धारा नहीं हैं | हमारे स्थिर होने के कारण ही हमारा अस्तित्व है | अगर हम नदी की धारा के साथ बह जाएंगे तो हम अपना अस्तित्व खो देंगे | इस प्रकार नदी की धारा के साथ बह जाने से हमारे पैर उखड़ जाएंगे अर्थात हम अपने स्थिरता को बैठेंगे, ढहकर नदी की धारा में गिर जाएंगे | लेकिन ऐसा होने पर भी अर्थात रेत या चूर्ण बनकर भी क्या हम कभी धारा बन सकते हैं? अर्थात कदापि नहीं | चूर्ण रूप में परिवर्तित होने पर भी हमारा अपना अस्तित्व रहेगा | यही नहीं छिन्न-भिन्न होकर रेत बनकर हम नदी के जल को गंदा कर उसे अनुपयोगी बना देंगे |

कहने का तात्पर्य यह है कि द्वीप के अस्तित्व की सुरक्षा उसके स्थिर रूप में है, प्रवाहमान होने में नहीं | द्वीप के साथ-साथ नदी के लिए भी द्वीप का पृथक अस्तित्व ही लाभदायक है |

विशेष — (1) व्यक्ति के जीवन में समाज के महत्व को रेखांकित करते हुए उसके पृथक अस्तित्व पर बल दिया गया है |

(2) मुक्त छंद है |

(3) भाषा सरल, सहज स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

द्वीप है हम |

यह नहीं है शाप | यह अपनी नियति है |

हम नदी के पुत्र हैं | बैठे नदी के क्रोड में |

वह वृहद भूखंड से हमको मिलाती है |

और वह भूखंड अपना पितर है | (3)

प्रसंग — पूर्ववत |

व्याख्या — नदी के द्वीप कहते हैं कि हम नदी के द्वीप हैं | यह कोई अभिशाप नहीं है, यह तो हमारा भाग्य विधान है | नदी हमारी धात्री ( माता ) है और हम उसके पुत्र हैं | नदी रूपी माँ की गोद में बैठकर ही हमने जीवन धारण किया है | नदी रूपी माँ हमें विशाल भूमिखंड से मिलाती है और वह भूखंड ही हमारा पूर्वज है |

कहने का अभिप्राय यह है कि समाज में रहते हुए ही व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का निर्माण करता है और समाज में रहते हुए ही व्यक्ति अपने पूर्वजों के जीवन मूल्यों को सीखता है |

विशेष — (1) व्यक्ति के जीवन में समाज के महत्व को रेखांकित किया गया है |

(2) प्रतीकात्मक शब्दावली है |

(3) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(4) मुक्त छंद है |

नदी तुम बहती चलो |

भूखंड से जो दाय हमको मिला है, मिलता रहा है,

माँजती, संस्कार देती चलो :

यदि ऐसा कभी हो –

तुम्हारी आह्लाद से या दूसरों के किसी

स्वैराचार से अतिसार से

तुम बढ़ो, प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे –

वह स्रोतस्विनी ही कर्मनाशा कीर्तिनाशा घोर

काल प्रवाहिनी बन जाय –

तो हमें स्वीकार है वह भी, उसी में रेत होकर

फिर छनेंगे हम | जमेंगे हम | कहीं फिर पैर टेकेंगे |

कहीं फिर से खड़ा होगा नये व्यक्तित्व का आकार |

मात:, उसे फिर संस्कार तुम दे देना |(4)

प्रसंग — पूर्ववत |

व्याख्या — द्वीप नदी को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे नदी! तुम निरंतर प्रवाहमान रहो | पिता रूपी भूखंड से हमें जो दाय मिला है, अब तक प्राप्त होता रहा है, हे माँ स्वरूपा नदी! तुम इस दाय को निखारती रहो, संस्कार देती रहो अर्थात जिस प्रकार एक मां अपने बच्चों को अच्छे संस्कार देती है और उसके व्यक्तित्व को निखारती है उसी प्रकार तुम भी हमें सुंदर व आकर्षक रूप प्रदान करती रहो |

कभी तुम्हारे स्वेच्छाचार से या किसी के अत्याचार से तुम्हारे प्रवाह में बाढ़ आ जाए और तुम्हारी धारा कर्मविनाशिनी, कीर्तिविनाशिनी व काल प्रवाहिनी बन जाए तो भी हमें स्वीकार है | हम उस में रेत बनकर बिखर जाएंगे लेकिन हम तुम्हारी धारा में ही छनकर, जमकर फिर पैर टिकाएंगे अर्थात् हम रेत होकर भी पुनः जमकर द्वीप रूप धारण कर लेंगे | एक बार फिर से किसी अन्य स्थान पर हम एक नए व्यक्तित्व का आकार ग्रहण करेंगे | हे माता! हमारे उस नवीन रूप को तुम फिर से संस्कार देना |

कहने का भाव यह है कि व्यक्ति के जीवन में समाज का अपना एक विशिष्ट महत्व है लेकिन समाज में रहते हुए भी व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व की पृथक पहचान बनाए रखनी चाहिए | व्यक्ति और समाज दोनों के लिए ही यह लाभकारी है |

विशेष — (1) व्यक्ति के जीवन में समाज के विशिष्ट महत्व को रेखांकित करते हुए उसके पृथक अस्तित्व पर बल दिया गया है |

(2) प्रतीकात्मक शब्दावली है |

(3) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(4) मुक्त छंद है |

‘नदी के द्वीप कविता’ का प्रतिपाद्य/ कथ्य ( ‘Nadi Ke Dvip’ Kavita Ka Pratipadya/ Kathya )

‘नदी के द्वीप’ अज्ञेय जी की प्रसिद्ध कविता है | इस कविता में कवि ने व्यक्ति की निजी अस्मिता के महत्त्व को प्रतिपादित किया है | यहाँ द्वीप व्यष्टि तथा नदी समष्टि ( समाज ) का प्रतीक है | कवि ने स्पष्ट किया है कि इसमें समष्टि का अंग होते हुए भी व्यष्टि का अपना महत्व होता है |

जिस प्रकार द्वीप नदी से रूप व आकार प्राप्त करते हैं उसी प्रकार समाज से ही व्यक्ति का व्यक्तित्व निर्मित होता है परंतु फिर भी व्यक्ति का अपना अस्तित्व है | वह समाज की धारा में विलीन होकर अपने विशिष्ट व्यक्तित्व को खोना नहीं चाहता |

किंतु हम बहते नहीं हैं

क्योंकि बहना रेत होना होता है

हम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं |

द्वीप यदि नदी की धारा में प्रभावित हो जाएं तो वे रेत में परिवर्तित हो जाएंगे और उनका अपना अस्तित्व समाप्त हो जाएगा | ठीक इसी प्रकार से समाज की धारा में बह जाने से व्यक्ति का अपना व्यक्तित्व समाप्त हो जाएगा |

द्वीप धारा की उपेक्षा भी नहीं करते | क्योंकि नदी की धारा ने ही उन्हें रूप-आकार प्रदान किया है | वे उसके प्रति श्रद्धा का भाव रखते हैं | वे नहीं चाहते कि नदी की धारा मेउन्हें छोड़कर चली जाए |

हम नदी के द्वीप हैं

हम नहीं कहते कि हम को छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए

वह हमें आकार देती है |

इस प्रकार ‘नदी के द्वीप’ कविता अस्तित्ववादी दर्शन की अभिव्यक्ति करती है | अस्तित्ववाद व्यक्ति की स्वतंत्रता सत्ता में विश्वास करता है | समष्टि का महत्व स्वीकार करते हुए भी वह व्यष्टि के अपने अस्तित्व को खंडित नहीं होने देता |

इस प्रकार ‘नदी के द्वीप’ कविता का मुख्य कथ्य मनुष्य के स्वतंत्र अस्तित्व के महत्व को प्रतिपादित करना है | लेकिन यह व्यक्तिनिष्ठता समाज के महत्व को भी स्वीकार करती है |

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