साँप ( Saanp ) : अज्ञेय

साँप !

तुम सभ्य तो हुए नहीं

नगर में बसना

भी तुम्हें नहीं आया |

एक बात पूछूं ( उत्तर दोगे? )

तब कैसे सीखा डँसना –

विष कहाँ से पाया?

प्रसंग — प्रस्तुत कविता हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘समकालीन हिंदी कविता’ में संकलित अज्ञेय द्वारा रचित ‘साँप’ कविता से अवतरित है | प्रस्तुत कविता के माध्यम से अज्ञेय ने नगरीय सभ्यता की शोषक प्रवृत्ति पर व्यंग्य किया है |

व्याख्या — कविवर अज्ञेय सांप को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे सांप! तुम सभ्य नहीं हुए और नगर में बसना भी तुम नहीं सीख पाए | मैं तुमसे एक प्रश्न पूछता हूँ कि तुमने यह विष कहाँ से प्राप्त किया और तुम डँसना कैसे सीख गए | क्या तुम मुझे इसका उत्तर दोगे?

कवि के कहने का तात्पर्य यह है कि शहरों में बसने वाले तथाकथित सभ्य लोग सर्प की भांति विषैले होते हैं | जैसे सांप लोगों को डँसता है ठीक उसी प्रकार से शहरी लोग भी एक दूसरे को डँसने के लिए अर्थात् एक-दूसरे का अहित करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं |

‘साँप’ कविता का प्रतिपाद्य या कथ्य ( Saamp Kavita Ka Pratipadya Ya Kathya )

‘साँप’ अज्ञेय जी की एक प्रसिद्ध लघु कविता है | इस कविता में उन्होंने महानगरीय जीवन की संवेदनहीनता का चित्रण किया है | इस कविता में उन्होंने आधुनिक नागरिक सभ्यता पर करारा व्यंग्य करते हुए नगरों में रहने वाले लोगों को साँप से भी विषैला कहा है |

साँप प्राय: जंगलों और विरानो में रहते हैं | इसलिए वे सभ्य नहीं हो सकते | कवि व्यंग्यात्मक शैली में साँप को सम्बोधित करते हुए पूछता है कि हे साँप ! तुम न तो सभ्य हो और न ही शहरों में रहते हो, तो बताओ तुमने ये डँसना कहाँ से सीखा और कहाँ से विष प्राप्त किया |

“साँप !

तुम सभ्य तो हुए नहीं

नगर में बसना

भी तुम्हें नहीं आया |

एक बात पूछूँ ( उत्तर दोगे? )

तब कैसे सीखा डँसना –

विष कहाँ से पाया?”

कवि ‘साँप’ कविता के माध्यम से शहरों में रहने वाले तथाकथित सभ्य लोगों की विषैली मानसिकता पर व्यंग्य करता है | कवि के अनुसार शहरों के लोग ईर्ष्या और द्वेष के विष से भरे रहते हैं और अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए दूसरों को डँसने के लिए तत्पर रहते हैं |