कामायनी : आनंद सर्ग ( जयशंकर प्रसाद ) – सार / कथ्य / प्रतिपाद्य या मूल भाव

‘आनंद’ जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित महाकाव्य ‘कामायनी’ का अंतिम सर्ग है। पाठ्यक्रम में संकलित आनंद सर्ग का सार निम्नलिखित है :

मानव के सहयोग से इड़ा ने सारस्वत प्रदेश को सुव्यवस्थित कर दिया था। जिसका परिणाम यह निकला कि वे सभी लोग आपसी वैमनस्य का त्याग कर एक परिवार की तरह मिलजुल कर रहने लगे थे। सारस्वत प्रदेश के सभी निवासी हर प्रकार से समृद्ध एवं धन-धान्य परिपूर्ण ही गए थे।

एक दिन सहसा सारस्वत नगर के सभी वासी मानव और इड़ा के साथ मनु और श्रद्धा के दर्शनों के लिए कैलाश पर्वत की ओर चल पड़े। धर्म का प्रतिनिधि वृषभ भी सारस्वत नगरवासियों के साथ था। वह सोम लताओं में पूर्णत: ढका हुआ था। उसके गले में एक घंटा बंधा हुआ था जो निरंतर मधुर ध्वनि करता जा रहा था। उस वृषभ की रस्सी मानव ने अपने हाथ में पकड़ी हुई थी तथा उसने दूसरे हाथ में एक त्रिशूल ले रखा था। मानव के साथ इड़ा भी गेरुए वस्त्रों को पहनकर आगे बढ़‌ती जा रही थी। वह लोगों का मार्गदर्शन कर रही थी। इन सबके पीछे मधुरगान करते हुए शिशु आगे बढ़‌ते जा रहे थे। अनेक युवक विविध प्रकार की विनोद लीलाएँ कर रहे थे तथा अनेक युवतियाँ मंगल तथा कल्याणकारी गीत गा रही थीं। एक बालक बार-बार अपनी माँ से कैलाश पर्वत की यात्रा के बारे में जानने की इच्छा प्रकट कर रहा या लेकिन जब उसे माँ से उचित उत्तर प्राप्त नहीं हुआ तब वह इड़ा के पास आया और उससे प्रश्न पूछने लगे। तब इड़ा ने उस बालक को उस शांत, पवित्र तथा मनोरम तपोवन की कथा सुनाई, जिसकी यात्रा समस्त सारस्वत नगरवासी कर रहे थे । चलते-चलते आखिरकार वह स्थान आ ही गया जहाँ मनु अपने ध्यान में लीन सरस्वती नदी के किनारे बैठे थे। श्रद्धा मनु के समिति अपने दोनों हाथों से बनी अंजलि में पुष्प लिए खड़ी थी | जैसे ही सारस्वत नगर के वासी उनके समीप पहुंचते हैं तो उनके शोर से मनु का ध्यान भंग हो जाता है | श्रद्धा और मनु को एक साथ देखकर समस्त नगरवासी प्रसन्न हो जाते हैं | मानव शीघ्रता से अपनी माता श्रद्धा की गोद में जा बैठता है | पीड़ा भी श्रद्धा के चरणों के पास झुक जाती है और क्षमा याचना करने लगती है | चारों ओर अलौकिक प्रकाश फैल जाता है | कैलाश पर्वत पर व्याप्त सभी जड़-चेतन आपसी भेदभाव को भूलकर आह्लादित हो जाते हैं

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