विद्यापति पदावली : नखशिख खण्ड ( Vidyapati Padavali : Nakhshikh Khand )

पीन पयोधर दूबरि गता ।
मेरु उपजल कनक-लता ||

ए कान्हु ए कान्हु तोरि दोहाई ।
अति अपूरुब देखलि साई ||

मुख मनोहर अधर रंगे।
फूललि मधुरी कमल संगे ||

लोचन - जुगल भृंग अकारे ।
मधुक मातल उड़ए न पारे||

भउँहक कथा पूछह जनू ।
मदन जोड़ल काजर-धनू ||

भन विद्यापति दूति बचने ।
एत सुनि कान्हु कएल गमने || (1)

प्रसंग -- प्रस्तुत पद्यांश रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित 'विद्यापति की पदावली' के 'नखशिख' खण्ड से अवतरित है। इसमें कवि विद्यापति ने नायिका अर्थात् राधा के अनिंद्य सौन्दर्य का वर्णन किया है। इन पंक्तियों में दूती नायक श्रीकृष्ण के समक्ष नायिका राधा के सौन्दर्य का वर्णन कर रही है।

व्याख्या --  विद्यापति कहते हैं कि दूती श्रीकृष्ण के सामने राधा के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कहती है कि उसके अर्थात् नायिका राधा के दोनों उरोज अत्यन्त पुष्ट हैं, जबकि उसका शरीर अत्यन्त पतला है। उसके दुबले शरीर पर पुष्ट व उन्नत उरोज ऐसे दिखाई देते हैं मानों किसी स्वर्ण लता में कोई सुमेरू पर्वत निकल आया हो। दूती व्यग्रतावश कहती है -- हे कृष्ण ! हे कृष्ण! तुम्हें सौगन्ध है। केवल एक बार उस अद्वितीय, अनुपम सौन्दर्य को देख तो आओ। उसका अर्थात् राधा का मुख अत्यन्त मनोहर है तथा उसके ओंठ लाल दिखाई देते हैं। उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि मानों कमल के साथ माधुरी का फूल खिला हुआ हो। उसके दोनों नेत्र उन काले भ्रमर के समान दिखाई देते हैं जो मुधपान करके इतने मस्त हो गए हैं कि अब उनसे उड़ा नहीं जाता। दूती कहती है कि हे कृष्ण!उसकी दोनों भौहों के बारे में कुछ मत पूछो | उन्हें देखकर ऐसा लगता है मानो कामदेव ने नायिका की भौहों रूपी काला धनुष बना लिया है। कहने का भाव यह है कि उसकी काली भौंहें धनुष के समान हैं। विद्यापति कहते हैं कि दूती के मुख से राधा के सौन्दर्य-सम्बन्धी बातें सुनकर श्रीकृष्ण ने नायिका अर्थात् राधा से मिलने के लिए वहाँ से प्रस्थान किया।
कि आरे! नव जीवन अभिरामा ।
जत देखल तत कहए न पारिअ
छओ अनुपम एक ठामा ||

हरिन इन्दु अरबिन्द करिनि हेम
पिक बूझल अनुमानी ।
नयन बदन परिमल गति तन-रुचि
अओ अति सुललित बानी ||

कुच जुग परसि चिकुर फुजि पसरल
ता अरुझायल हारा।
जनि सुमेरु ऊपर मिलि ऊगल
चाँद बिहिनु सब तारा ||

लोल कपोल ललित मनि-कुंडल
अधर बिम्ब अध जाई ।
भौंह भ्रमर, नासापुट सुन्दर
से देखि कीर लजाई ||

भनइ विद्यापति से बर नागरि
आन न पावए कोई ।
कंसदलन नारायन सुन्दर
तसु रंगिनी पए होई || (2)


प्रसंग -- प्रस्तुत पद्यांश रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित 'विद्यापति की पदावली' के 'नखशिख' खण्ड से अवतरित है। इसमें कवि विद्यापति ने नायिका अर्थात् राधा के अनिंद्य सौन्दर्य का वर्णन किया है। इन पंक्तियों में दूती नायक श्रीकृष्ण के समक्ष नायिका राधा के सौन्दर्य का वर्णन कर रही है।



व्याख्या -- दूती नायक श्रीकृष्ण के समक्ष राधा की सुन्दरता का वर्णन करते हुए कहती है कि उसका अर्थात राधा का नवयौवन कितना सुन्दर है। कहने का भाव यह है कि राधा पर अभी-अभी यौवन आया है। उसका यौवन देखने में इतना सुन्दर लगता है कि उसका वर्णन करते नहीं बनता। ऐसा लगता है कि इस संसार की छहों अनुपम वस्तुएँ उसमें समा गई हैं। उसके नेत्र हिरण के समान, उसका मुख चन्द्रमा के समान, उसके शरीर अथवा साँसों से निकलने वाली गन्ध कमल की सुगन्ध के समान, उसकी चाल मस्त हथिनी के समान, उसके शरीर की कान्ति स्वर्ण के समान, उसकी वाणी कोयल की मधुर आवाज के समान है। कहने का भाव यह है कि इस संसार की छहों प्रसिद्ध वस्तुओं हिरण, चन्द्रमा, कमल, हथिनी, स्वर्ण व कोयल के गुण राधा के छ अंगों नेत्र, मुख, सुगन्ध, चाल, कांति व वाणी में समा गए हैं। उसके दोनों उरोजों से स्पर्श करते हुए उसकी केश-राशि में उसके गले का हार उलझा हुआ है। उसके काले बालों में उलझा हुआ मोतियों का वह हार ऐसा लग रहा है मानों सुमेरू पर्वत के ऊपर चन्द्रमा विहीन आकाश में तारे उदय हो गए हों। उसके कपोलों पर चंचल मणियों से युक्त कुण्डल की आभा पड़ रही है। उसके लाल ओठों को देखकर बिम्बफल को भी नीचा देखना पड़ता है। कहने का भाव यह है कि उसके लाल ओठ बिम्बफल से भी अधिक लालिमायुक्त हैं। उसकी सुन्दर काली भौहों को देखकर भ्रमर तथा उसकी सुन्दर नासिका को देखकर तोता भी लज्जित हो जाता है। कवि विद्यापति कहते हैं कि ऐसी सुन्दर व श्रेष्ठ नारी को श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई भी प्राप्त नहीं कर सकता। कंस का वध करने वाले सुन्दर श्रीकृष्ण को ही वह रमणी प्राप्त हो सकती है।
माधब, की कहब सुन्दरि रूपे ।
कतेक जतन बिहि आनि संमारल
देखल नयन सरूपे ||

पल्लब - राज चरन- जुग सोभित
गति गजराज क भाने
कनक-कदलि पर सिंह समारल
तापर मेरु समाने ||

मेरु उपर दुइ कमल फुलायल
नाल बिना रुचि पाई।
मनि-मय हार धार बहु सुरसरि
तओ नहिं कमल सुखाई ||

अधर बिम्ब सन, दसन दाड़िम-बिजु
रबि ससि उगधिक पासे ।
राहु दूर बस नियरो न आबधि
तैं नहि करथि गरासे ||

सारंग नयन बयन पुनि-सारँग
सारंग तसु समधाने |
सारंग उपर उगल दस सारंग
केलि करयि मधुपाने ||

भनइ विद्यापति सुन बर जौबति
एहन जगत नहि आने
राजा सिवसिंघ रूपनरायन-
लखिमा देइ पति भाने || (3)

प्रसंग -- प्रस्तुत पद्यांश रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित 'विद्यापति की पदावली' के 'नखशिख' खण्ड से अवतरित है। इसमें कवि विद्यापति ने नायिका अर्थात् राधा के अनिंद्य सौन्दर्य का वर्णन किया है। इन पंक्तियों में दूती नायक श्रीकृष्ण के समक्ष नायिका राधा के सौन्दर्य का वर्णन कर रही है।


व्याख्या -- दूती श्रीकृष्ण के समक्ष कहती है -- हे श्रीकृष्ण। मैं उस सुन्दर रूप वाली राधा के अद्वितीय सौन्दर्य का वर्णन किस प्रकार करूँ, अर्थात् वह इतनी सुन्दर है कि उसके सौन्दर्य का वर्णन नहीं किया जा सकता। जब उसे कोई अपनी आँखों से देखता है तो उसे आश्चर्य होता है कि ब्रह्मा ने कितने ही यत्न से उसे संवारा सजाया है। उसके दोनों चरण कमल के समान सुन्दर व शोभायमान हैं। जब वह चलती है तो उसकी चाल से हाथी की चाल का आभास होता है। सोने के केले जैसी उसकी सुन्दर जंधाओं के ऊपर सिंह की पतली कमर जैसी कमर शोभायमान है। उसकी अर्थात् राधा की पतली कमर के ऊपर सुमेरू पर्वत जैसा वक्षस्थल है तथा उस विशाल वक्षस्थल के ऊपर दोनों उरोज कमल के समान खिले हुए हैं, परन्तु ये दोनों उरोज रूपी कमल बिना नाल के ही सुशोभित हो रहे हैं। उसके गले में मणियों से युक्त हार गंगा नदी के समान दिखाई पड़ता है जिसके कारण ये उरोज रूपी कमल कभी नहीं सूखते। राधा के होंठ बिम्बफल के समान लाल हैं तथा उसके सफेद दाँत अनार के दाने के समान चमकते हैं। उसके चन्द्रमा रूपी मुख पर सूर्य रूपी सिन्दूर का तिलक शोभायमान है। इस प्रकार सूर्य व चन्द्रमा दोनों ही समीप समीप उगे हुए हैं। उसके केश रूपी राहु सूर्य व चन्द्रमा के निकट नहीं आता जिसके कारण वह इन्हें ग्रसित नहीं कर पाता। कहने का भाव यह है कि उसकी केश राशि उलझकर उसके मुखमंडल पर नहीं आती है। हे कृष्ण! हिरण के नेत्रों के समान उसके भी नेत्र अत्यन्त सुन्दर हैं, उसकी वाणी कोयल के स्वर के समान मधुर है। उसके कटाक्ष में स्वयं कामदेव सुशोभित हैं। उसके मुख रूपी कमल के ऊपर दसों लटें भ्रमर के समान मँडरा रही हैं तथा वे ऐसी प्रतीत होती हैं मानो वे राधा के सौन्दर्य का मधुपान करने लिए मँडरा रही हैं।

कवि विद्यापति कहते हैं कि हे श्रेष्ठ युवती! सुनो! इस सारे संसार में लखिमा देवी के पति राजा शिवसिंह के अतिरिक्त कोई दूसरा ऐसा व्यक्ति नहीं है जो राधा के सौन्दर्य को समझ सके ।
जुगल सैल-सिम हिमकर देखल
एक कमल दुइ जोति रे ।।

फुललि मधुरि फुल सिंदुर लोटाएल
पाँति बइसलि गज-मोति रे।
आज देखल जत के पतिआएत
अपुरुब बिहि निरमान रे ।।

बिपरित कनक- कदलि-तर सोभित
थल- पंकज के रूप रे ।
तथहु मनोहर बाजन बाजए
जनि जागे मनसिज भूप रे ।।

भनइ विद्यापति पूरब पुन तह
ऐसनि भजए रसमन्त रे ।
बुझए सकल रस नृप सिवसिंघ
लखिमा देइ कर कंत रे ।। (4)

प्रसंग -- प्रस्तुत पद्यांश रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित 'विद्यापति की पदावली' के 'नखशिख' खण्ड से अवतरित है। इसमें कवि विद्यापति ने नायिका अर्थात् राधा के अनिंद्य सौन्दर्य का वर्णन किया है। इन पंक्तियों में दूती नायक श्रीकृष्ण के समक्ष नायिका राधा के सौन्दर्य का वर्णन कर रही है।

व्याख्या --  दूती नायक से कहती है कि नायिका के शरीर पर पर्वत की सीमा के समान दोनों उरोजों के समीप ही चन्द्रमा जैसा मुख दिखाई देता है। उसके कमल जैसे सुन्दर मुख पर दोनों नेत्र ज्योति के समान दिखाई देते हैं। उसने अपनी माँग में माधुरी का खिला हुआ पुष्प लिटाया हुआ है अर्थात् माँग में सिंदूर लगा रखा है और उसके दाँतों की पंक्ति गज मुक्ता के समान दिखाई देती है।

हे कृष्ण ! आज मैंने उसके जिस सुन्दर रूप को देखा है, उस पर कौन विश्वास करेगा। ब्रह्मा ने उस नायिका के रूप में अद्वितीय सौन्दर्य का निर्माण किया है अर्थात् वह अद्वितीय सुन्दरी है। उसकी दोनों जँघाएँ सोने से बने केले के उलटे तने के समान दिखाई देती हैं तथा उनके नीचे स्थल पर कमल के समान चरणों का सुन्दर रूप शोभा दे रहा है। वहीं पर मन को लुभाने वाले बाजे भी बज रहे हैं अर्थात् उसके पाँवों में बँधे नुपूर की मधुर ध्वनि सुनाई दे रही है। ऐसा लगता है मानो उस नुपूर ध्वनि से कामदेव रूपी राजा को जगाने का प्रयास किया जा रहा हो।

विद्यापति कहते हैं कि ऐसी रसवन्ती रमणी का भोग वही रसिक कर सकता है जिसने पिछले जन्म में अत्यधिक पुण्य किए होंगे। रानी लखिमा देवी के पति राजा शिवसिंह सभी रसों के ज्ञाता हैं। अतः वे इस रस से अन्जान नहीं हैं।
चाँद-सार लए मुख घटना करु
लोचन चकित चकोरे ।
अमिय धोय आँचर धनि पोछलि
दह दिसि भेल उँजोरे ।। 

जुग-जुग के बिहि बूढ़ निरस उर
कामिनि कोने गढ़ली ।
रूप सरूप मोयँ कहइत असँभव
लोचन लागि रहली ।। 

गुरु नितम्ब भरे चलए न पारए
माझ खानि खीनि निमाई ।
भागि जाइत मनसिज धरि राखलि 
त्रिबलि - लता अरुझाई ।। 

भनइ विद्यापति अद्भुत कौतुक
ई सब बचन सरूपे ।
रूपनरायन ई रस जानथि
सिवसिंघ मिथिला भूपे ।। (5)

प्रसंग -- प्रस्तुत पद्यांश रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित 'विद्यापति की पदावली' के 'नखशिख' खण्ड से अवतरित है। इसमें कवि विद्यापति ने नायिका अर्थात् राधा के अनिंद्य सौन्दर्य का वर्णन किया है। इन पंक्तियों में दूती नायक श्रीकृष्ण के समक्ष नायिका राधा के सौन्दर्य का वर्णन कर रही है।

व्याख्या -- दूती कृष्ण से कहती है कि विधाता ने जब नायिका की रचना की तो चन्द्रमा की सुन्दरता के मूल तत्त्व को एकत्र करके उसके मुख की रचना की थी तथा उसके चन्द्रमा के समान सुन्दर मुख को देखकर चंचल चकोरी के नेत्र भी चकित रह गए। नायिका ने अपने सुन्दर मुख को सुन्दरतर बनाने के लिए अमृत से धोकर जैसे ही आँचल से पोछा तो वह इतना मनोहर हो गया कि उसकी चमक से सभी दिशाएँ प्रकाशित हो गयी। युग-युग से विधाता तो नीरस और बूढ़ा हो चुका है तब फिर इतनी सुन्दर नारी की रचना कौन कर सकता है? अर्थात् विधाता भी इतने सुन्दर रूप की रचना नहीं कर सकता। उसके सुन्दर रूप का वर्णन करना कवि के लिए असंभव है, क्योंकि उस पर निरन्तर आँखें लगी ही रहती हैं। नायिका के नितम्ब इतने भारी थे कि उससे अब चला भी नहीं जाता। उसका मध्य भाग (कटि प्रदेश) पतला बना हुआ है। वह भाग टूट न जाए इसलिए कामदेव ने पेट की तीन रेखाएँ रूपी लता से उसे फंसाकर बचा रखा है। विद्यापति कवि कहते हैं कि उस नायिका का सौन्दर्य एक अद्भुत रचना है जो सर्वथा सत्य है। मिथिला के राजा शिवसिंह जो 'रूपनारायण' पदवी को धारण किए हुए हैं। वे इस नायिका की सरसता को जानते हैं।

विशेष --  इस पद में कवि ने नायिका की सुन्दरता का शब्द-चित्र प्रस्तुत किया है।
सुधामुखि के बिहि निरमिल बाला ।
अपुरुष रूप मनोभव-मंगल
त्रिभुबन विजयी माला ।। 

सुन्दर बदन चारु अरू लोचन
काजर-रंजित भेला ।
कनक- कमल माझ काल-भुजंगिनी
स्त्रीयुत खंजन खेला ||

नाभि-बिवर सगँ लोम-लतावलि
भुजगि निसास-पियासा ।
नासा-खगपति-चंचु भरम-भय
कुच-गिरि-संधि निवासा ।। 

तिन बान मदन तेजल तिन भुवने
अवधि रहल दओ बाने।
विधि बड़ दारुन बधए रसिकजन
सोंपल तोहर नयाने ।। 

भनइ विद्यापति सुन बर जौवति
इह रस केओ पए जाने।
राजा सिवसिंघ रूपनरायन
लखिमा देइ रमाने ।। (6)

प्रसंग -- प्रस्तुत पद्यांश रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित 'विद्यापति की पदावली' के 'नखशिख' खण्ड से अवतरित है। इसमें कवि विद्यापति ने नायिका अर्थात् राधा के अनिंद्य सौन्दर्य का वर्णन किया है। इन पंक्तियों में दूती नायक श्रीकृष्ण के समक्ष नायिका राधा के सौन्दर्य का वर्णन कर रही है।

व्याख्या -- राधा के सौंदर्य का वर्णन करते हुए राधा की सखी या दूती कृष्ण से कहती है कि चन्द्रमा के समान सुन्दर मुख वाली उस निर्मल बाला का निर्माण न जाने किस विधाता ने किया है। कहने का भाव यह है कि वह इतनी सुन्दर एवं निर्मल है कि वह इस संसार की सृष्टि करने वाले ब्रह्मा की रचना तो नहीं हो सकती। उसका अनुपम सौन्दर्य कामदेव का हित करने वाला है। कहने का भाव यह है कि उसका सुन्दर रूप दूसरों के मन में काम भावना उत्पन्न कर देता है। उसके गले में जो हार अथवा माला है वह तीनों लोकों को भी जीतने में सक्षम है। उसका सुन्दर मुख है तथा उसकी आँखों में लगा हुआ काजल उनको और भी मनोहर बना रहा है। काजल युक्त उसके दोनों नेत्र ऐसे लग रहे हैं मानो स्वर्ण कमल में काल-सर्पिणी हो तथा दो सुन्दर खंजन आपस में क्रीड़ा कर रहे हों। नाभि के छिद्र के समीप से निकलने वाली रोमावली ऐसी दिखाई देती है मानो नायिका के सुंगध पूर्ण निःश्वासों को पीने के लिए कोई प्यासी सर्पिणी ऊपर की ओर बढ़ रही हो, परन्तु नायिका की नाक को पक्षियों के राजा गरूड़ की चोंच समझकर और उससे भयभीत होकर वह सर्पिणी नायिका के पर्वतों के समान उरोजों के मध्य स्थल में जाकर छिप गई हो। कहने का भाव यह है कि नायिका की रोमावली सर्पिणी के समान दिखाई देती है जो नाभि से निकलकर उरोजों के समीप जाकर लुप्त हो गई है। कामदेव ने अपने पाँच बाणों में से तीन बाणों को तीनों लोकों में छोड़कर कामाग्नि उत्पन्न कर दी तथा शेष दो बाण बचे हुए हैं। उन शेष दोनों बाणों को निर्मम विधाता ने रसिकों का वध करने के लिए उसके (नायिका) के) नेत्रों को सौंप दिया है।

विद्यापति कहते हैं कि हे श्रेष्ठ युवती! सुनो इस रस को
रानी लखिमा देवी के पति रूप नारायण शिवसिंह के समान कोई रसिक ही जान सकता है |

विशेष --  इस पद में कवि ने नायिका की सुन्दरता का शब्द-चित्र प्रस्तुत किया है।

जाइत देखलि पथ नागरि सजनि गे
आगरि सुबुधि सेयानि |
कनक-लता सनि सुन्दर सजनि गे
बिहि निरमाओल आनि ।।

हस्ति-गमन जकाँ चलइत सजनि गे
देखइत राज - कुमारि ।
जिनकर एहनि सोहागिनि सजनि गे
पाओल पदारथ चारि ।।

नील बसन तन घेरल सजनि गे
सिर लेल चिकुर सँभारि ।
तापर भमरा पिबए रस सजनि गे
बइसल पाँखि पसारि ।। 

केहर सम कटि-गुन अछि सजनि गे
लोचन अम्बुज धारि ।
बिद्यापति कबि गाओल सजनि गे
गुन पाओल अवधारि ।। (7)

प्रसंग -- प्रस्तुत पद्यांश रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित 'विद्यापति की पदावली' के 'नखशिख' खण्ड से उद्धृत हैं। इस खण्ड में कवि विद्यापति ने नायिका राधा के सौन्दर्य का वर्णन किया है। अवतरित पद में नायिका की सखी नायक श्रीकृष्ण के समक्ष उसके सौन्दर्य का वर्णन करती हुई कहती हुई ये पंक्तियाँ कहती है | 

व्याख्या -- हे श्रीकृष्णः आपसे निवेदन है कि आप मार्ग में आते-जाते उस चतुर, बुद्धिमती और सयानी नायिका को एक बार देख तो लो। क्योंकि वह स्वर्ण लता के समान अद्भुत सुन्दर है और ऐसा लगता है कि मानो विधि अर्थात् ब्रह्मा ने स्वयं आकर उसका निर्माण किया हो। तुम उस राजकुमारी की चाल को तो देखो। उसकी चाल देखकर ऐसा लगता है जैसे हाथी अपनी मस्त चाल में चल रहा हो। जो भी व्यक्ति इस सौभाग्यवती सुन्दरी को प्राप्त करेगा, तो निश्चय ही उसे इस संसार के चारों दुर्लभ पदार्थ (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) प्राप्त हो जाएंगे। सखी कहती है कि जब उसने अपने सिर के बालों को सम्भालने के लिए हाथ उठाया तो उसके शरीर को ढकने वाले नीले वस्त्र पूर्ण रूप से दिखाई दिए। उसकी केश राशि ऐसी दिखाई देती है मानो उस पर काले भँवरे पंख फैलाकर बैठ गए हों। हे कृष्ण! उसकी कमर में सिंह की कटि ( कमर ) वाला गुण है अर्थात् उसकी कमर सिंह की कमर के समान अत्यन्त पतली है और उसके दोनों नेत्र ऐसे दिखाई देते हैं मानो वे दोनों खिले हुए कमल हों। कवि विद्यापति कहते हैं कि मैंने नायिका के जिन गुणों का वर्णन किया है वह ( राधा ) निश्चय ही उन गुणों से युक्त है | 
चिकुर-निकर तम-सम
पुनि आनन पुनि ससी |
नयन-पंकज के पतिआओत 
एक ठाम रहु बसी ।।

आज मोयँ देखलि बारा ।
लुबुध मानस, चालक मयन 
कर की परकारा ।।

सहज सुन्दर गोर कलेबर
पीन पयोधर सिरी ।
कनक-लता अति बिपरित
फरल जुगल गिरी ।। 

भन बिद्यापति बिहि क घट न
के न अदभुद जान ।
राय सिवसिंघ रूपनरायन
लखिमा देइ रमान ।। (8)

प्रसंग -- प्रस्तुत पद्यांश रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित 'विद्यापति की पदावली' के 'नखशिख' खण्ड से उद्धृत है। इस खण्ड में कवि विद्यापति ने नायिका राधा के सौन्दर्य का वर्णन किया है। अवतरित पद में कवि ने राधा को देख लेने के पश्चात् श्रीकृष्ण के मन में उठते विचारों के माध्यम से नायिका की अपूर्व सुन्दरता के बारे में बताया है।

व्याख्या -- श्रीकृष्ण कहते हैं कि उसकी केश-राशि अन्धकार के समान है जबकि उसका सुन्दर मुख पूर्णिमा के चाँद के समान अनुपम है। उसके नेत्र रूपी कमल को देखकर यह कौन विश्वास करेगा कि इन तीनों सुन्दर वस्तुओं का निवास स्थान एक ही है। श्रीकृष्ण स्वयं से कहते हैं कि आज मैंने उस सुन्दर बाला को देख लिया है और उसने काम भाव पैदा करने वाले सौन्दर्य से मेरा मन लुभा लिया है। अब उसे वश में करने के लिए क्या किया जाए? कहने का भाव यह है कि श्रीकृष्ण का मन अब अपने वश में नहीं है। उसका सहज, सुन्दर और गोरे रंग का सुन्दर शरीर है जिस पर उसके दोनों उन्नत उरोज शोभायमान हैं। यद्यपि यह बात कहने में उलटी दिखाई देती है, परन्तु यह सत्य है कि उसके दोनों उरोज ऐसे दिखाई देते हैं मानो स्वर्णलता के अन्दर से दो पर्वत निकल जाये हों। कवि विद्यापति कहते हैं कि विधाता की उस रचना को अर्थात् राधा को कौन अद्भुत नहीं कहेगा।

रानी लखिमा देवी के पति राजा शिवसिंह जो कि रूपनारायण हैं, वे इस रूप के रहस्य को समझ सकते हैं | 
सजनी, अपरूप पेखल रामा ।
कनक लता अवलम्बन ऊअत
हरिन-हीन हिमधामा।।

नयन-नलिनि दओ अंजन रंजइ
भौंह बिभंग-बिलासा ।
चकित चकोर-जोर बिधि बाँधल्के
बल काजर पासा ।। 

गिरिबर - गरुअ पयोधर-परसित
गिम गज-मोति क हारा।
काम कम्बु भरि कनक-सम्भु परि
ढारत सुरसरि-धारा ।। 

पएसि पयाग जाग सत जागइ
सोइ पाबए बहुभागी ।
बिद्यापति कह गोकुल-नायक
गोपी जन अनुरागी ।। (9)

प्रसंग -- प्रस्तुत पद्यांश रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित 'विद्यापति की पदावली' के 'नखशिख' खण्ड से अवतरित है। इसमें कवि विद्यापति ने नायिका अर्थात् राधा के अनिंद्य सौन्दर्य का वर्णन किया है। इन पंक्तियों में एक स्त्री अपनी सखी से राधा के सौन्दर्य का वर्णन कर रही है।


व्याख्या -- हे सखी! आज मैंने एक सुन्दरी के अनुपम सौन्दर्य को देखा। उसको देखकर ऐसा लगता था मानो किसी स्वर्ण लता का सहारा पाकर कोई निष्कलंक चन्द्रमा उग आया हो। कहने का भाव यह है कि उसके स्वर्ण-कांति वाले छरहरे शरीर पर चन्द्रमा से भी अधिक सुन्दर मुख दिखाई दे रहा था। उसने अपने कमल के समान सुन्दर नेत्रों में काजल लगाया हुआ था तथा उसकी भंगिमा अर्थात् वक्रता से युक्त सुन्दर भौँहें थीं। उसके काजल-युक्त नेत्रों को देखकर ऐसा लगता था मानो ब्रह्मा ने चकित होकर भागने वाले चकोरों को काजल रूपी पाश में बाँध दिया हो। उसके पर्वतों के समान ऊँचे व भारी उरोजों को उसकी गर्दन में पड़ा हुआ गज-मोतियों से बना हार स्पर्श कर रहा था। उसके उरोजों को स्पर्श करते हार को देखकर ऐसा लगता था मानी कामदेव शंख में गंगा जल को भर कर स्वर्ण निर्मित शिवलिंग के ऊपर गंगाजल की धारा उड़ेल रहा हो।

वह स्त्री अपनी सखी से कहती है कि जिस व्यक्ति ने प्रयाग में जाकर सैंकड़ों यज्ञ किए हों, वही अत्यधिक भाग्यशाली व्यक्ति उस सुन्दरी को प्राप्त करेगा।

कवि विद्यापति कहते हैं कि गोकुल के नायक श्रीकृष्ण ही गोपियों के प्रिय हैं। अतः वे ही उस सुन्दरी अर्थात् राधा को प्राप्त करेंगे।


कनक लता अरबिन्दा ।
दमना माँझ उगल जनि चन्दा ।। 

केहु कहे सैबल छपला ।
केहु बोले नहि नहि मेघे झपला ।। 

केहु कहे भमए भमरा ।
केहु बोले नहि नहि चरए चकोरा ।।

संसय परल सब देखी ।
केहु बोलए ताहि जुगुति बिसेखी ।। 

भनइ बिद्यापति गावे ।
बड़ पुन गुनमति पुनमत पावे ।। (10)

प्रसंग -- प्रस्तुत पद्यांश रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित 'विद्यापति की पदावली' के 'नखशिख' खण्ड से अवतरित है। इसमें कवि विद्यापति ने नायिका अर्थात् राधा के अनिंद्य सौन्दर्य का वर्णन किया है। इन पंक्तियों में दूती नायक श्रीकृष्ण के समक्ष नायिका राधा के सौन्दर्य का वर्णन कर रही है।


व्याख्या -- उस नायिका को देखकर ऐसा लगता है मानो कनक लता के ऊपर कमल खिला हुआ हो। कहने का भाव यह है कि उसके छरहरे शरीर की स्वर्ण जैसी कांति है तथा उसका मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है। उसे देखकर ऐसा लगता है कि मानो द्रोण लता के मध्य में चन्द्रमा उग आया हो। कहने का भाव है कि उसके गहरे काले केश हैं तथा उस केश राशि में उसका गौर वर्ण का मुख चन्द्रमा के समान चमक रहा है। उसके काले केशों में सुन्दर मुख को देखकर कोई तो कहता है कि शैवाल में कमल छिप गया है तो कोई कहता है कि नहीं; काले बादलों के बीच में चाँद छिप गया है। उसके नेत्रों की ओर देखकर कोई कहता है कि भंवरे घूम रहे हैं तो कोई कहता है कि नहीं-नहीं ये तो चकोर विचरण कर रहे हैं। इस प्रकार जिस भी व्यक्ति ने उसको देखा वही संशय में पड़ गया अर्थात् उसके सौन्दर्य को देखकर सभी संशय में पड़े हुए हैं। जो भी व्यक्ति उसकी सुंदरता के विषय में कोई युक्ति बताता है वही विशेषताओं से परिपूर्ण होती है | कवि विद्यापति कहते हैं कि कोई बड़े पुण्य करने वाला ही उस गुणवान स्त्री को प्राप्त करेगा | 
कबरी-भय चामरि गिरि-कन्दर
मुख-भय चाँद अकासे ।
हरिन नयन-भय, सर-भय कोकिल
गति-भय गज बनबासे ।। 

सुन्दर, काहे मोहि सँभासि न जासि ।
तुअ डर इह सब दूरहि पलायल
तुहुँ पुन काहि डरासि ।। 

कुच-भय कमल कोरक जल मुदि रहु
घट परबेस हुतासे ।
दाड़िम सिरिफल गगन बास करु
सम्भु गरल करु ग्रासे ।। 

भुज-भय पंक मृनाल नुकाएल
कर-भय किसलय काँपे ।
कबि - सेखर भन कत कत ऐसन
कहब मदन परतापे ।। (11)

प्रसंग -- प्रस्तुत पद्यांश रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित 'विद्यापति की पदावली' के 'नखशिख' खण्ड से अवतरित है। इसमें कवि विद्यापति ने नायिका अर्थात् राधा के अनिंद्य सौन्दर्य का वर्णन किया है। इन पंक्तियों में दूती नायक श्रीकृष्ण के समक्ष नायिका राधा के सौन्दर्य का वर्णन कर रही है।

व्याख्या -- हे सुन्दरी! तुम्हारे काले बालों को देखकर सुरागाय अर्थात् देवताओं की गाय कामधेनु भी संयमीत हो गई है और अब वह पहाड़ों की गुफाओं में जाकर छिप गई है। तुम्हारे मुख की सुन्दरता को देखकर चन्द्रमा भी भयभीत होकर आकाश में उड़ गया है। इसी प्रकार तुम्हारे नेत्रों के सौंदर्य से भयभीत होकर हिरण, मधुर बोली से भयभीत होकर कोयल तथा तुम्हारी मस्त चाल को देखकर हाथी ने वन में रहना आरंभ कर दिया है | 

हे सुन्दरी! फिर भी तुम मुझसे सम्भाषण क्यों नहीं करती। तुमसे डर कर ही तो ये सभी दूर-दूर स्थान को पलायन कर गए हैं तो फिर तुम स्वयं किससे डर रही हो। तुम्हारे उरोजों के नुकीलेपन से ही भयभीत होकर कमल की कली जल में छिपकर रहती है तथा तुम्हारे उरोजों के गोलाकार के कारण घड़ा अग्नि में प्रवेश कर जाता है। तुम्हारे दाँतों का सौन्दर्य देखकर अनार और श्रीफल भी आकाश में निवास करने लगे। तुम्हारे शरीर के गौर वर्ण की समानता न कर पाने के कारण शिव ने भी विष पी लिया और उनका शरीर नीला पड़ गया। तुम्हारी सुन्दर भुजाओं को देखकर कमल की टहनी भी कीचड़ में जाकर छिप गई। तुम्हारी हथेलियों की सुन्दरता को देखकर भय से नए-नए कोमल पत्ते भी काँपने लगते हैं। कवियों में श्रेष्ठ कवि विद्यापति कहते हैं कि  कामदेव के प्रताप अर्थात राधा के सौंदर्य का कहां-कहां तक वर्णन करूँ | अर्थात राधा के सौंदर्य का वर्णन कर पाना शब्दों में संभव नहीं है | 
रामा, अधिक चंगिम भेल।
कतने जतन कत अद्बुद, बिहि बिहि तोहि देले।।

सुन्दर बदन सिंदुर-बिन्दु, सामर चिकुर भार ।
जनि रबि-ससि संगहि ऊगल पाछु कए अंधकार ।।

चंचल लोचन बाँक निहारए अंजन सोभा पाए ।
जनि इन्दीवर पवन - पेलल अलि भरे उलटाए ।। 

उनत उरोज चिर झपाबए पुनु पुन दरसाए ।
जइऔ जतने गोअए चाहए हिम गिरि न नुकाए ।।

एहनि सुन्दरि गुनक आगरि पुनें पुनमत पाव ।
ई रस बिन्दक रूपनारायन कवि विद्यापति गाव ।। (12)


प्रसंग -- प्रस्तुत पद्यांश रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित 'विद्यापति की पदावली' के 'नखशिख' खण्ड से उद्धृत है। इस खण्ड में कवि विद्यापति ने नायिका राधा के शारीरिक सौन्दर्य का वर्णन किया है। अवतरित पद में कवि ने नायिका की एक सखी के माध्यम से उसके सौन्दर्य का वर्णन किया है। सखी नायिका से कहती है-

व्याख्या -- हे सुन्दरी! तुम अत्यधिक सौंदर्यमयी पदार्थों से मिलकर बनी हो। ब्रह्मा ने न जाने कितने यत्न से कितने अद्भुत पदार्थों अथवा उपकरणों को जोड़कर तुम्हारा निर्माण किया है। तुम्हारे सुन्दर मुख तथा उस पर सिंदूर का तिलक और ऊपर काले बाल; इन तीनों को देखकर ऐसा लगता है मानों सूर्य और चन्द्रमा एक साथ उदय हो गए हों तथा उसके पीछे गहन अंधकार छा गया है। कहने का भाव यह है कि नायिका का मुख चन्द्रमा के समान, उसके सिन्दूर का तिलक सूर्य के समान दिखाई देते हैं तथा उसके खुले केश काले अंधकार के समान दिखाई देते हैं।

तुमने अपने चंचल नेत्रों में काजल लगा रखा है तथा काजल युक्त नेत्रों से कटाक्ष करती हो अर्थात् तिरछी नजर से जो देखती हो तो ऐसा लगता है मानों पवन के झोंकों से काले भ्रमरों से भरा हुआ कमल उलट गया हो। तुम अपने उन्नत व पुष्ट उरोजों को बार-बार आँचल से ढकती हो, परन्तु आँचल के बार-बार गिरने के कारण वे फिर से दिखाई देने लगते हैं। तुम चाहे कितना ही यत्न क्यों न कर लो इन पर्वतों अर्थात् पर्वतों के समान उन्नत व पुष्ट उरोजों को छिपा न सकोगी। हे सुन्दरी तुम जैसी गुणों वाली चतुर, रमणी को कोई पुण्य वाला ही पा सकेगा।

कवि विद्यापति कहते हैं कि इस रस के सम्पूर्ण ज्ञाता रूपनारायण हैं | 
सहज प्रसन मुख दरस हृदय सुख
लोचन तरल तरंग |
अकास पताल बस सेओ कइसे भेल अस
चाँद सरोरुह सेंग ||

बिहि निरमलि रामा दोसरि लछि समा
भल तुलाएल निरमान ।। 

कुच-मंडल सिरि हेरि कनक- गिरि
लाजे दिगन्तर गेल ।
केओ अइसन कह सेओ न जुगुति सह
अचल सचल कइसे भेल ।। 

माझ खीनि तनु भरे भाँगि जाए जनु
बिधि अनुसए भेल साजि ।
नील पटोर आनि अति से सुदृढ़ जानि
जतन सिरिजु रोमराजि ।।

भन कबि बिद्यापति काम-रमनि रति
कौतुक बुझ रसमन्त ।
सिरि सिवसिंघ राउ पुरुख सुकृत पाउ
लखिमा देइ रानि कन्त ।। (13)

प्रसंग -- प्रस्तुत पद्यांश रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित 'विद्यापति की पदावली' के 'नखशिख' खण्ड से अवतरित हैं। इस खण्ड में कवि विद्यापति ने नायिका राधा के शारीरिक सौन्दर्य का वर्णन किया है। अवतरित पद में कवि ने नायिका की दूती या सखी के द्वारा श्रीकृष्ण के समक्ष राधा के सौन्दर्य का चित्रण किया है। दूती कहती है कि --

व्याख्या -- नायिका की सखी कृष्ण से कहती है उसके अर्थात् नायिका के सहज व प्रसन्न मुख को देखकर तथा उसके तरल व चंचल नेत्रों को देखकर हृदय में सुखद अनुभूति होती है। उसको देखकर यह प्रश्न उठता है कि एक तो चन्द्रमा आकाश में रहता है जबकि कमल पानी में रहता है फिर इन दोनों का मेल किस प्रकार हो गया। कहने का भाव यह है कि उसका मुख चन्द्रमा के समान है जबकि उसके नेत्र कमल के समान सुन्दर हैं। ब्रह्मा ने इस सुन्दरी को लक्ष्मी जैसी बनाया हैं अर्थात् इस सुन्दरी का निर्माण दूसरी लक्ष्मी के रूप में हुआ है और इससे लक्ष्मी की खूब तुलना हो गई है। उसके पयोधरों अर्थात उरोजों की शोभा से लज्जित होकर स्वर्ण पर्वत अर्थात् सुमेरू पर्वत भी दिशा के एक ओर जाकर छिप गया है। कोई व्यक्ति यह कह सकता है कि ऐसी बात तो युक्ति संगत नहीं हुई क्योंकि जो पर्वत अचल रहता है वह चलायमान कैसे हो गया। वस्तुतः वह न तो आया और न ही कहीं गया क्योंकि वह तो उसके उरोजों की उपमा के योग्य ही नहीं था। उसके मध्य भाग में पतली-सी कमर है। वह इतनी क्षीण है कि इस आशंका से कि कहीं उसके अत्यंत भारी उरोजों के भार के कारण वह टूट न जाए, इसलिए ब्रह्मा ने उसकी रोमावली के रूप में उसकी कटि को रेशम की नीली डोरी से बाँध दिया है।

कवि विद्यापति कहते हैं कि कामदेव की पत्नी रति जैसी नायिका के कौतुक को कोई रसिक ही समझ सकता है। राजा श्री शिवसिंह जैसे पुरुष को रानी लखिमा देवी ने भाग्य से ही प्राप्त किया है।

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