विद्यापति पदावली : बसंत ( Vidyapati Padavali : Basant )

माघ मास सिरि पंचमी गँजाइलि
नवम मास पंचम हरुआई ।
अति घन पीड़ा दुःख बड़ पाओल
बनसपती भेति धाई हे ।। 

सुभ खन बेरा सुकुल पक्ख हे
दिनकर उदित - समाई ।

सोरह सम्पुन बतिस लखन सह
जनम लेल ऋतुराई हे ।।

नाचए जुबतिजना हरखित मन
जनमल बाल मधाई हे।

मधुर महारस मंगल गावए
मानिनि मान उड़ाई हे ।।

बह मलयानिल ओत उचित हे
नव घन भओ उजियारा।
माधवि फूल भेल मुकुता तुल
ते देल बन्दनवारा ।।

पोअरि पाँड़रि महुअरि गावए
काहरकार धतूरा ।
नागेसर - कलि संख धूनि पूर
तकर ताल समतूरा ।।

मधु लए मधुकर बालक दएहलु
कमल-पंखरी-लाई ।
पओनार तोरि सूत बाँधल कटि
केसर कएलि बघनाई ।। 

नव नव पल्लव सेज ओछाओल
सिर देल कदम्बक माला ।
बैसलि भमरी हरउद गाबए
चक्का चन्द निहारा ।। 

कनअ केसुअ सुति- पत्र लिखिए हलु
रासि नछत कए लोला ।
कोकिल गनित-गुनित भल जानए
रितु बसन्त नाम थोला ।। 


बाल बसन्त तरुन भए धाओल
बढ़ए सकल संसारा ।।

दखिन पवन घन अंग उगारए
किसलय कुसुम-परागे ।

सुललित हार मजरि घन कज्जल
अखितौं अंजन लागे ।।

नव बसन्त रितु अगुसर जौबति
बिद्यापति कबि गावे ।
राजा सिव सिंघ रूप नरायन
सकल कला मनभावे ।।  (1)

प्रसंग -- प्रस्तुत पद्यांश रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित 'विद्यापति की पदावली' में संकलित 'बसन्त' खण्ड से अवतरित है। इस खण्ड में कवि विद्यापति ने वसन्त ऋतु के सौन्दर्य व प्रभाव का वर्णन किया है।

अवतरित पद में कवि ने वसन्त ऋतु को बालक के रूप में चित्रित किया है।


व्याख्या --  माघ के महीने में श्री पंचमी पूर्ण गर्भा हुई अर्थात् उसके नौ माह का गर्भ पूर्ण रूप से विकसित हो गया। अब नौ माह के ऊपर पाँच दिन और बीत चुके हैं। अन्त में अत्यधिक पीड़ा देने वाला प्रसव-काल आ गया जिसके कारण उसे अर्थात श्री पंचमी को बहुत कष्ट हुआ। तभी यहाँ पर वनस्पतियाँ धाय के रूप में उपस्थित हो गई।

आज शुक्ल पक्ष में सूर्य के उदय होने के समय में अच्छे क्षण व शुभ घड़ी में सोलह अंगों अर्थात् कलाओं और बत्तीसों शुभ लक्षणों के साथ बालक ऋतुराज अर्थात् वसन्त ने जन्म लिया।

बालक वसन्त के जन्म लेने की खुशी में सभी युवतियों के मन हर्षित होकर नृत्य करने लगे और वे मधुर एवं आनन्ददायक मंगलगान करने लगी। ऐसे अवसर पर मान करने वाली स्त्रियों का भी मान जाता रहा अर्थात् वे भी अपना मान त्यागकर इस जन्मोत्सव में भाग लेने लगीं।

उस समय पर्वतों की ओर से आने वाली शीतल पवन चल रही थी, अतः इससे बालक वसन्त की रक्षा करना जरूरी था। अतः उसकी ओट करने के लिए आकाश में नए बादल छा गए। माधवी बेल के फूल मोतियों के समान थे इसीलिए उन्हीं से बन्दनवारें बनाई गई।

पीली पांडरी बालक के जन्मोत्सव पर गाया जाने वाला ‘मुहअरि' गीत गाने लगी तथा धतुरा तुरही बजाने लगा। नाग केशर की कलियाँ शंख की ध्वनि आपूरित होने लगी तथा तगर समान रूप से ताली बजाने लगी।

भ्रमरों ने कमल की पँखुड़ियों से मधु लाकर बालक वसन्त को चटाया। कमल की नाल को तोड़कर उसके सूत अथवा धागे को बालक वसन्त की कमर में बाँधा गया। केशर ने उस बालक के गले में बधनख लाकर बाँध दिया।

नए-नए पत्तों ने उस बालक के लिए कोमल सेज बनाई है। उसके सिरहाने कदम्ब पुष्पों की माला तकिए के रूप में लगा दी गई है। वहाँ पर बैठी हुई भ्रमरी उस बालक को लोरी गाकर सुनाने लगी। बालक के ऊपर चन्द्रमा चकरी खिलौने के रूप में दिखाई देता है।

सुनहरे रंग के टेसू अथवा पलाश ने रात्रि वनक्षत्रों राशि व नक्षत्रों का निर्धारण करके बालक वसन्त के जन्म-पत्र को लिखा । ज्योतिष-गणना में गुणी कोयल ने गणना करके उस बालक का नाम वसन्त रखा।

बालक बसन्त अब तरुण होकर दौड़ने लगा और वह सम्पूर्ण संसार में व्याप्त होने लगा।

दक्षिणी-पवन ने नष्ट व कोमल पत्तों पर पुष्प-पराग रखकर बसन्त के शरीर पर उबटन लगाया। आम्र मंजरी ने उसके गले में सुन्दर हार पहनाया और बादलों ने उसकी आँखों में काजल लगाया।

कवि विद्यापति कहते हैं कि हे युवती! नए बसन्त ऋतु के दिनों में तू अपने प्रियतम से मिलने के लिए अग्रसर हो।
राजा शिवसिंह रूपनारायण को सभी कलाएँ मनभावन लगती हैं।
आएल रितुपति-राज बसन्त ।
धाओल अलिकुल माधवि - पन्थ ।।

दिनकर- किरन भेल पौगंड ।
केसर कुसुम धएल हेमदंड ।। 

नृप-आसन नव पीठल पात ।
काँचन कुसुम छत्र धरु माथ ।। 

मौलि रसाल- मुकुल भेल ताय ।
समुख हि कोकिल पञ्चम गाय ।।

सिखिकुल नाचत अलिकुल यन्त्र ।
द्विजकुल आन पढ़ आसिख मन्त्र ।। 

चन्द्रातप उड़े कुसुम पराग ।
मलय पवन सह भेल अनुराग ।। 

कुंदबल्ली तरु धएल निसान ।
पाटल तून असोक दल बान।। 

किंसुक लवंग-लता एक संग।
हेरि सिसिर रितु आगे दल भंग ।। 

सैन साजल मधु-मखिका कूल ।
सिसिरक सबहु कएल निरमूल ।।

उधारल सरसिज पाओल प्रान ।
निज नव दल करु आसन दान ।। 

नव वृन्दावन राज बिहार ।
विद्यापति कह समयक सार ।। (2)

प्रसंग -- प्रस्तुत पद्यांश रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित 'विद्यापति की पदावली' में संकलित 'बसन्त' खण्ड में से लिया गया है। इस खण्ड में कवि विद्यापति ने वसन्त ऋतु के सौन्दर्य व प्रभावों का मनोहर चित्रण किया है। अवतरित पद में कवि विद्यापति ने वसन्त ऋतु को राजा मानकर उसका वर्णन किया है। 

व्याख्या --  ऋतुओं के राजा वसन्त का आगमन हुआ। भँवरों का समूह माधवी लता के पुष्पों की ओर दौड़ने लगा |

सूर्य की किरणें कुछ-कुछ तीव्र होने लगी हैं और उसके आगमन पर केसर के पुष्पों ने स्वर्ण दण्ड को धारण कर लिया है।

वृक्षों के नए पत्ते राजा के लिए आसन बन गए हैं। वसन्त राजा के सिर पर चम्पा के पुष्पों का छत्र सजाया गया है।

आम्र मंजरी उस राजा के सिर का मुकुट बनी हुई है और उस राजा के सामने कोयल अपने पंचम स्वर में गा रही है।

मोरों का समूह उस राजा के समक्ष नृत्य कर रहा है और भंवरों का समूह वाद्य यंत्र बजा रहा है।
पक्षियों का समूह वहाँ आकर आशीर्वाद के मन्त्र पढ़ने लगा।

चंदोवा से पुष्प पराग उड़ने लगा और मलयाचल से आने वाली पवन के साथ उसका अनुराग हो गया।

कुँदबल्ली ने वसन्त राजा की पताका का रूप धारण कर लिया है तथा पाटल वृक्ष ने उसके तरकश तथा अशोक वृक्ष के पत्तों ने उसके बाण का रूप धारण कर लिया है।

पलाश के पत्ते तथा लवंग लता ने एक होकर धनुष व उसकी डोरी का रूप धारण कर लिया है। राजा वसन्त के इन अस्त्र-शस्त्रों को देखकर शत्रु शिशिर ऋतु की सेना भाग खड़ी हुई। कहने का भाव यह है कि वसन्त ऋतु के आगमन पर शिशिर ऋतु समाप्त हो गई।

मधु मक्खियों के समूह ने ही राजा वसन्त की सेना सजाई थी जिसने शिशिर ऋतु को निर्मूल अथवा नष्ट कर दिया।

वसन्त राजा के आगमन पर कमल का उद्धार हुआ तथा उसे एक नया जीवन प्राप्त हुआ। इसलिए उसने राजा वसन्त के समक्ष अपने नए-नए पत्तों का आसन बनाकर प्रस्तुत किए।

वृन्दावन का नया रूप देखकर वसन्त राजा ने वहाँ विहार किया। कवि विद्यापति कहते हैं कि वसन्त ऋतु ही सर्वोत्तम ऋतु है।

विशेष -- कवि ने ऋतुराज वसन्त के आगमन व उसके प्रभावों का सुन्दर चित्रण किया है।
नव बृन्दावन नव नव तरुगन
नव-नव बिकसित फूल ।
नवल बसंत नवल मलयानिल
मातल नव अलि कूल ।।

बिहरइ नवल किसोर ।
कालिंदि- पुलिन कुंज बन सोभन
नव-नव प्रेम-बिभोर ।। 4 ।।

नवल रसाल- मुकुल- मधु मातल ।
नव कोकिल कुल गाय ।
नवजुवती गन चित उमताअई
नव रस कानन धाय ।। 

नव जुवराज नवल बर नागरि
मिलए नव-नव भाँति ।
निति-निति ऐसन नव-नव खेलन
बिद्यापति मति माति ।। (3)

प्रसंग -- प्रस्तुत पद्यांश रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित 'विद्यापति की पदावली' में संकलित 'बसन्त' खण्ड  से लिया गया है। इस खण्ड में कवि विद्यापति ने वसन्त ऋतु के सौन्दर्य, प्रभाव आदि का चित्रण किया है।

अवतरित पद में कवि वसन्त ऋतु के वृन्दावन में आगमन व उसके प्रभाव का वर्णन करते हुए कहते हैं कि --

व्याख्या -- वसन्त ऋतु के आगमन पर ऐसा लगता है मानो वृन्दावन में नयापन आ गया हो, नए-नए वृक्षों के समूहों पर नए-नए फूल खिले हुए हैं। यहाँ पर नई-नई वसन्त ऋतु पहुँची है, नई-नई मलयानिल चल रही है और नए-नए भ्रमरों का समूह मत्त होकर वहाँ उड़ रहा है। नव किशोरावस्था वाले श्रीकृष्ण वहाँ पर विहार कर रहे हैं। यमुना नदी के तट पर वन तथा उपवन शोभायमान हैं और ऐसे स्थान पर श्रीकृष्ण नए-नए प्रेम में विभोर हो रहे हैं। नई-नई आम्र-मंजरियों का मधु पीकर मस्त हुआ कोयलों का समूह नए-नए गीत गा रहा है। नवयुवतियों के समूह का मन उन्मत्त हो गया है और वे नए-नए रस की प्राप्ति के लिए उपवन की ओर दौड़ने लगी (क्योंकि श्रीकृष्ण वहीं पर विराजमान हैं)। नया-नया यौवन प्राप्त करने वाले नवयुवक श्रीकृष्ण नई-नई नवयुवती के साथ नए-नए प्रेम-भाव से मिल रहे हैं। कवि विद्यापति कहते हैं कि नित्य-नित्य ऐसे नए-नए खेल खेलने से बुद्धि भी उन्मत्त हो जाती है ।
लता तरुअर मंडप जीति ।
निरमल ससघर धबलिए भीति ।। 

पउँअ नाल अइपन भल भेल ।
रात परीहन पल्लव देल ।। 

देखह माइ हे मन चित लाय ।
बसन्त - बिबाह कानन थलि आय ।।

मधुकरि-रमनी मंगल गाब ।
दुजबर- कोकिल मंत्र पढ़ाब ।। 

करु मकरंद हथोदक नीर ।
बिधु बरिआती धीर समीर ।। 

कनअ किसुक मुति तोरन तूल ।
लाबा बिथरल बेलिक फूल ।। 

केसर कुसुम करु सिंदुर दान ।
जओतुक पाओल माननि मान ।।

खेलए कौतुक नव पँचबान ।
बिद्यापति कब दृढ़ कए भान ।। (4)



प्रसंग -- प्रस्तुत पद रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित 'विद्यापति की पदावली' में संकलित 'बसन्त' खण्ड में से लिया गया है। इस खण्ड में कवि विद्यापति ने वसन्त के सौन्दर्य, प्रभाव आदि का अत्यन्त मनमोहक चित्रणः किया है।

अवतरित पद में कवि विद्यापति ने वसन्त को राजकुमार के रूप में दर्शाकर उसके विवाह का वर्णन किया है। 

व्याख्या -- लताओं और श्रेष्ठ ऊंचे वृक्षों ने मिलकर ऐसा मंडप बनाया है कि उसके समक्ष वास्तविक मण्डप भी पराजित हो गया है। स्वच्छ चन्द्रमा ने अपनी चाँदनी से आकाश रूपी दीवारों को पोत कर उन्हें स्वच्छ व उज्ज्वल बना दिया है। कमल की नाल ने ही ऐपन ( मांगलिक चिह्न ) का स्थान ले लिया है। नए-नए पत्तों ने वसन्त को लाल वस्त्र प्रदान किए हैं।

हे सखी! मन और चित्त को लगाकर ध्यान से उस वनस्थली को देखो जहाँ बसन्त विवाह के लिए पहुँच चुका है। भ्रमरी रूपी रमणियाँ मंगलगान कर रही हैं, कोयल रूपी श्रेष्ठ ब्राह्मण मन्त्रोच्चारण कर रहे हैं । पुष्प रस को ही हथोदक नीर अर्थात् संकल्प लेते समय हाथ में लिए जाने वाले जल के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। चन्द्रमा और मन्द गति की पवन बराती बने हुए हैं। स्वर्णिम आभा वाले पलाश के फूल ही मोतियों की बन्दनवार के समान दिखाई दे रहे हैं। बेले के पुष्प विवाहोत्सव में खील बिखेर रहे हैं। केसर पुष्प ने अपना केसर सिन्दूर के रूप में दान दिया है। इस विवाह में मानवती स्त्रियों का मान ही दहेज का सामान बन गया है। कवि विद्यापति कहते हैं कि मुझे पूरा विश्वास है कि यह सब कामदेव का विनोदपूर्ण खेल ही है।

विशेष -- कवि ने वसन्त को मानवीकृत कर दूल्हे के रूप में  उसके विवाह के दृश्य का शब्द-चित्र प्रस्तुत किया है।
नाचहु रे तरुनी तजहु लाज ।
आएल बसन्त रितु बनिक - राज ।।

हस्तिनि, चित्रिनि, पदुमिनि नारि ।
गोरी सामरि एक बूढ़ि बारि ।। 

बिबिध भाँति कएलन्हि सिंगार ।
पहिरल पटोर गृम झूल हार ।। 

केओ अगर चंदन घसि भर कटोर ।
ककरहु खोइँछा करपुर तमोर ।।

केओ कुमकुम मरदाब आँग 
ककरहु मोतिअ भल छाज माँग ।। (5)


प्रसंग -- प्रस्तुत पद रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित विद्यापति की पदावली' में संकलित 'बसन्त' खण्ड से उद्धृत है। इस खण्ड में कवि विद्यापति ने वसन्त ऋतु का मनोहारी व प्रभावशाली चित्रण किया है।

अवतरित पद में कवि ने वसन्त का व्यापारी रूप में वर्णन किया है।

व्याख्या -- कवि कहता है कि हे युवतियो! अब तुम अपनी लज्जा को त्यागकर हर्षित मन से नृत्य करो, क्योंकि बसन्त रूपी व्यापारियों का राजा आ गया है। कहने का भाव यह है कि बसन्त एक व्यापारी के रूप में आया जिसके पास स्त्रियों को कामोद्दीपन करने वाली अनेक वस्तुएँ हैं जिन्हें प्राप्त कर स्त्रियों खुशी से नाच उठती हैं। हस्तिनी, चित्रिणी, पद्मनी, गोरी, काली (साँवली), बूढ़ी, बाला सभी एक समान हो गई है अर्थात् उन सभी के मन में काम भावना उद्दीप्त हो उठी है। सभी स्त्रियों ने विविध प्रकार के श्रृंगार किए हुए हैं। उन स्त्रियों ने रेशमी वस्त्र पहन रखे हैं तथा उनके गले में पड़े हुए हार झूल रहे हैं। किसी स्त्री ने अगर और चन्दन को घिसकर कटोरा भर लिया है तो किसी ने अपने अंगोछे में कर्पूर और पान बाँधकर उसे कमर में खोंस लिया है। किसी स्त्री ने अपने शरीर पर केसर का लेप करा लिया है तो किसी ने अपनी मांग में मोती भर रखे हैं।

विशेष -- कवि ने बसन्त ऋतु का कामोद्दीपक के रूप में बहुत ही सजीव चित्रण किया है। 
अभिनव पल्लव बइसक देल ।
धवल कमल फुल पुरहर भेल ।। 

करु मकरंद मंदाकिनि पानि ।
अरुन असोग दीप दहु आनि ।। 

माइ हे आज दिवस पुनमंत ।
करिए चुमाओन राय बसंत ।। 

सपुन सुधानिधि दधि भल भेल ।
भमि-भमि भरि हँकारइ देल ।। 

केसू कुसुम सिंदुर सम भास ।
केतक - धूलि बिथरहु पट बास ।।

भनइ बिद्यापति कबि कंठ हार ।
रस बुझ सिव सिंघ अवतार ।। (6)


प्रसंग -- प्रस्तुत पद रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित 'विद्यापति की पदावली' में संकलित 'बसन्त' खण्ड से उद्धृत है। इस खण्ड में कवि विद्यापति ने वसन्त ऋतु के सौन्दर्य, प्रभाव आदि का चित्रण किया है।

अवतरित पद में कवि ने बसन्त को दूल्हे के रूप में चित्रित किया है। 

व्याख्या -- वसन्त रूपी दूल्हे को बैठने के लिए नए-नए पत्तों का आसन दिया गया है। सफेद कमल के पुष्पों का कलश के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। पुष्प-पराग इस समय गंगाजल बन गया है तथा लाल अशोक को दीपक के रूप में लाया गया है।

हे सखी! आज का दिन बहुत ही शुभ है। इसलिए आओ और वसन्त रूपी दूल्हे को दही आदि वस्तुओं का चुमाओन दो अर्थात् दुल्हा-दुल्हन को मांगालिक वस्तुओं की भेंट दो। इस समय पूरा चन्द्रमा दही बन गया है और भ्रमरी घूम-घूमकर सभी को इस विवाहोत्सव में आने का बुलावा दे रही है। किंशुक-पुष्प सिन्दूर के समान दिखाई दे रहे हैं तथा केतकी पुष्पों के पराग कणों को देखकर ऐसा लगता है जैसे वस्त्रों पर सुगन्ध बिखेर दी गई हो। कवियों के गले का हार कवि विद्यापति जिस रस का वर्णन कर रहा है, शिवजी के अवतार कहे जाने वाले राजा शिवसिंह उस रस के ज्ञाता हैं।

विशेष -- कवि ने वसन्त ऋतु को एक दूल्हे के रूप में प्रस्तुत करके प्रकृति के सुन्दर दृश्यों का मनोहारी चित्रण किया है।
दखिन - पवन बह दस दिस रोल।
से जनि वादी भासा बोल ।। 

मनमथ काँ साधन नहि आन ।
निरसाएल से मानिनि मान ।। 

माइ हे सीत- बसंत बिबाद ।
कओन बिचारब जय - अबसाद ।।

दुहु दिसि मधय दिवाकर भेल ।
दुजबर कोकिल साखी देल ।। 

नव पल्लव जयपत्रक भाँति ।
मधुकर-माला आखर-पाँति ।। 

बादी तह प्रतिवादी भीत।
सिसिर बिन्दु हो अन्तर सीत ।।

कुंद - कुसुम अनुपम बिकसंत ।
सतत जीत बेकताओ बसंत ।। 

विद्यापति कबि एहो रस भान ।
राजा सिवसिंघ एहो रस जान।। (7)

प्रसंग -- प्रस्तुत पद रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित 'विद्यापति की पदावली' में संकलित 'बसन्त' खण्ड से अवतरित है। इस खण्ड में कवि विद्यापति ने वसन्त ऋतु के सौन्दर्य, प्रभाव आदि का वर्णन किया है।

अवतरित पद में कवि ने न्यायालय की पद्धति पर वसन्त ऋतु का वर्णन किया है, जहाँ पर वसन्त वादी है तथा शिशिर प्रतिवादी है। 

व्याख्या -- दक्षिण दिशा की ओर से बहने वाली हवा दसों दिशाओं में शोर मचा रही है। ऐसा लगता है कि मानों वह अपने वादी वसन्त की भाषा बोल रहा है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि मलयानिल वकील के समान अपने वादी वसन्त के पक्ष को न्यायालय के समक्ष जोर-शोर से प्रस्तुत कर रहा है कि उसके आने का और शिशिर के जाने का समय आ गया है। कामदेव ने वसन्त को अधिकार दिलाने के लिए कोई अन्य साधन न पाकर मान करने वाली स्त्रियों के मान को नीरस व फीका करके बाहर निकाल दिया है। कहने का भाव यह है कि मान करने वाली स्त्रियों अब अपने मान को त्याग कर अपने प्रियतम के पास चली गई हैं।

हे सखी। शिशिर और बसन्त में झगड़ा हो गया है और इस झगड़े में कोई भी पक्ष अपनी जय-पराजय पर विचार नहीं कर रहा है। अन्ततः दोनों पक्षों के झगड़े को शान्त कराने के लिए सूर्य को मध्यस्थ अर्थात न्यायाधीश बनाया गया है। कोयल रूपी श्रेष्ठ ब्राह्मण ने आकर वहाँ गवाही दी। नए-नए कोमल पत्तों पर इस पक्ष के विजेता का निर्णय लिखा जाने लगा और उस पर भ्रमरों की पंक्ति अक्षरों के समान अंकित हो गई। कहने का भाव यह है कि नए-नए पत्तों पर बैठे काले भँवरे ऐसे दिखाई देते थे जैसे कागज पर अक्षर दिखाई देते हैं। वादी अर्थात् वसन्त के पक्ष में निर्णय होता देखकर प्रतिवादी अर्थात् शिशिर ओस की बूंदों में जाकर छिप गया। सुन्दर कुंद कुसुमों (एक प्रकार का सफेद फूल) ने विकसित होकर वसन्त की विजय को व्यक्त किया।

कवि विद्यापति कहते हैं कि इस रस को राजा शिवसिंह जैसा रस का ज्ञाता ही समझ सकता है।
अभिनव कोमल सुन्दर पात।
सबारे बने जनि पहिरल रात ।। 

मलय-पवन डोलए बहु भाँति
अपन कुसुम रस अपने माति ।।

देखि देखि माधव मन हुलसंत।
बिरिदावन भेल बेकत बसंत ।। 

कोकिल बोलए साहर भार ।
मदन पाओल जग नव अधिकार ।। 

पाइक मधुकर कर मधु पान ।
भमि-भमि जोहए मानिनि मान ।।

दिसि-दिसि से भमि विपिन निहारि ।
रास बुझाए मुदित मुरारि ।। 

भनइ बिद्यापति इ रस गाब ।
राधा-माधव अभिनव भाव ।। (8)


प्रसंग -- प्रस्तुत पद रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित विद्यापति की पदावली में संकलित 'बसन्त' खण्ड से लिया गया है। इस खण्ड में कवि विद्यापति ने वसन्त ऋतु में प्राकृतिक दृश्यों की सुन्दरता का चित्रण किया है।

अवतरित पद में कवि ने वसन्त ऋतु में वृन्दावन के प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन किया है। 

व्याख्या -- कवि कहते हैं कि वसन्त ऋतु में चारों ओर नए-नए कोमल और सुन्दर पत्ते दिखाई दे रहे हैं, ऐसा लगता है कि पूरे वन ने लाल रंग के वस्त्र धारण कर लिए हैं। मलय पवन अर्थात् दक्षिण दिशा से चलने वाली पवन अनेक प्रकार से बह रही है और उससे हिलने वाले पुष्प ऐसे दिखाई देते हैं मानों वे अपने ही रस को पीकर अपने आप में ही उन्मत्त हो गए हैं। अपने चारों ओर इस प्राकृतिक सौन्दर्य को देखकर श्रीकृष्ण का मन आनंदित हो रहा है, क्योंकि वृन्दावन में अब वसन्त का आगमन स्पष्ट हो गया है। आम्र मंजरियों के मद में मस्त होकर कोयल बोल रही है और ऐसा लगता है कि वह कह रही हो कि कामदेव ने वसन्त के रूप में इस संसार पर अपना अधिकार जमा लिया है।  वसन्त का दूत ( भंवरा ) अमर मधु-पान करने के पश्चात् अब धूम-घूम कर यह देख रहा है कि कोई मानिनी अभी भी मान किए हुए तो नहीं बैठी है | श्रीकृष्ण वन की प्रत्येक दिशा में घूमकर उसकी शोभा को देख रहे हैं तथा प्रसन्नचित्र होकर रास रचने का संकेत दे रहे हैं | कवि विद्यापति जी इस प्रेम रस का गुणगान करते हुए कहते हैं कि बसंत के आगमन पर राधा और माधव के मन में नए-नए भाव संचरित हो रहे हैं | 
चल देखए जाऊ रितु बसंत ।
जहाँ कुंद-कुसुम केतकि हसंत ।।

जहाँ चंदा निरमल भमर कार ।
जहाँ रयनि उजागर दिन अँधार ।। 

जहाँ मुगुधलि मानिनि करए मान ।
परिपंथिहि पेखए पंचबान ।।

भनइ सरस कबि-कंठ-हार ।
मधुसूदन राधा बन बिहार ।। (9)


प्रसंग -- प्रस्तुत पद रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित विद्यापति की पदावली' में संकलित 'बसन्त' खण्ड में से लिया गया है। इस खण्ड में मैथिल कवि विद्यापति ने वसन्त ऋतु का प्रभावपूर्ण चित्रण किया है।

अवतरित पद में कवि ने यह दर्शाया है कि एक गोपी अपनी सखी से वसन्त ऋतु के आगमन पर वृन्दावन के प्राकृतिक
सौन्दर्य को देखने की लालसा करती है | 

व्याख्या -- एक सखी दूसरी सखी से कहती है हे सखी! चलो वसन्त ऋतु की शोभा को देखने वृंदावन चलते हैं। वहाँ पर कुन्द और केतकी के पुष्प खिले हुए हैं। (कहने का भाव यह भी हो सकता है कि वहाँ पर राधा और कृष्ण क्रीड़ा कर रहे हैं।) यहाँ पर वसन्त के आगमन पर आकाश में निर्मल चन्द्रमा और काले भँवरे घूम रहे हैं, जिसके कारण दिन में अँधियारा छाया रहता है, जबकि रात उज्ज्वल रहती है। वहाँ पर मुग्ध नायिका जो कि मान करने वाली है, अब भी मान किए बैठी है जिसके कारण कामदेव उसे अपने शत्रु के रूप में देखता है। 'कवि कंठहार' उपाधि प्राप्त किए कवि विद्यापति कहते हैं कि चलो, चलकर श्रीकृष्ण व राधा को विहार करते देखें | 
मधुरित मधुकर पाँति । मधुर कुसुम मधुमाति ।।
मधुर वृन्दाबन मांझ । मधुर-मधुर रसराज ।।
मधुर जुबति जन संग । मधुर-मधुर रसरंग ।
मधुर मृदंग रसाल। मधुर-मधुर करताल ।।
मधुर नटन-गति भंग । मधुर नटिनी नट संग ।।
मधुर-मधुर रस गान। मधुर बिद्यापति भान ।। (10)


प्रसंग -- प्रस्तुत पद रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित 'विद्यापति की पदावली' में संकलित 'बसन्त' खण्ड से अवतरित है। इस खण्ड में कवि विद्यापति ने वसन्त ऋतु का मनोहर चित्रण किया है।

अवतरित पद में कवि ने वृन्दावन में वसन्त ऋतु के आगमन पर वहाँ के उल्लास भरे वातावरण का वर्णन किया है।

व्याख्या --कवि कहता है कि वसन्त ऋतु के आगमन पर भ्रमरों की पंक्तियाँ मधुर पुष्पों का मकरन्द पीकर उन्मत्त बनी हुई हैं। वसन्त ऋतु से प्रभावित सुन्दर वृन्दावन में मधुर श्रृंगार रस अपने माधुर्य के साथ विद्यमान है। वहाँ पर मधुर युवतियों के साथ मधुर आनन्द क्रीड़ा हो रही है। मधुर मृदंग की सरस व मधुर ध्वनि के साथ-साथ करताल की मधुर ध्वनि सुनाई दे रही है। मधुर नृत्य की तीव्र गति के साथ मधुर भाव-भंगिमा का प्रयोग किया जा रहा है। वहाँ पर मधुर नर्तकियों के साथ मधुर नर्तक भी नृत्य कर रहा है अर्थात् सुन्दर गोपियों के साथ श्रीकृष्ण भी विद्यमान हैं तथा वे रास लीला कर रहे हैं। रसिक कवि विद्यापति मधुर शब्दों में कहते हैं कि वहाँ पर अर्थात् वृंदावन में इस मधुर रस का मधुर गान हो रहा है।

विशेष -- कवि ने वसन्त ऋतु में चारों ओर फैली मधुरता का सरस वर्णन किया है।
बाजत द्विगि-द्विगि धौद्रिम द्विमिया ।
नटति कलाबति माति श्याम सँग ।
कर करताल प्रबन्धक ध्वनियाँ ।। 

डम डम डंफ डिमिक डिम मादल
रुनु झुनु मंजीर बोल ।
किंकिनि रनरनि बलआ कनकनि
निधुबन रास तुमुल उतरोल ।।

बीन, रबाब, मुरज स्वरमण्डल
सा रि ग म प ध नि सा बहु बिधि भाव ।
घटिता-घटिता धुनि मृदंग गरजनि
चंचल स्वरमण्डल करु राव ।।

स्रम भर गलित लुलित कबरीयुत
मालति माल बिथारल मोति ।
समय बसंत रास-रस वर्णन
बिद्यापति मति छोभित होति ।। (11)


प्रसंग -- प्रस्तुत पद्यांश रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित 'विद्यापति की पदावली' में संकलित 'बसन्त' खण्ड में से लिया गया है। इस खण्ड में मैथिल कोकिल विद्यापति ने वसन्त ऋतु का मनोहर वर्णन किया है।

अवतरित पद में कवि ने वसन्त ऋतु के आगमन पर आनंदित युवक-युवतियों अथवा श्रीकृष्ण व गोपियों द्वारा खेली जाने
वाली रासलीला का वर्णन किया है। 

व्याख्या -- कवि कहते हैं कि बजते हुए मृदंग से द्विगि-द्विगि-धौद्रिम-द्विमिया की ध्वनि निकल रही है। नृत्य कला में कुशल नृतकियाँ अर्थात् गोपियाँ श्रीकृष्ण के साथ नृत्य करती हुई उन्मत्त हो गई हैं और वे हथेलियों से तालियाँ बजाकर मधुर ध्वनियाँ भी उत्पन्न कर रही हैं। डपली से डम-डम की ध्वनि निकल रही है। मादल डिमिक-डिम की ध्वनियों के साथ बज रहे हैं। मंजीर से रुनु-झुनु की ध्वनि निकल रही है। दूसरी ओर नृत्य करते समय गोपियों की किंकिणियों से रण-रण की और चूड़ियों से कण-कण की ध्वनि जा रही है। इस प्रकार मधुबन में श्रीकृष्ण व गोपियों की रासलीला बड़े जोरों पर चल रही है। बीन, यन्त्री अर्थात् रबाब, ढोल अर्थात् मुरज से निकलने वाले सप्त स्वर (सा, रे, गा, मा, पा, धा, नि) यहाँ पर स्वर-मण्डल में विविध भावों के साथ गुजित हो रहे हैं। मृदंग की घटिता-घटिता ध्वनि के साथ चंचल कंठ-समूह से स्वर निकल रहे हैं। वाद्य यंत्रों को बजाने में तथा नृत्य में किए जाने वाले परिश्रम के कारण पसीना बह रहा है तथा चोटियों के खुल जाने के कारण उनमें लगे हुए मालती के फूलों की माला से फूल टूट-टूट कर मोती की भाँति बिखर रहे हैं। कवि विद्यापति कहते हैं कि इस रास वर्णन में मेरी मति भी चंचल हो उठी है।
रितुपति-राति रसिक रसराज ।
रसमय रास रभस-रस माझ ।।

रसमति रमन-रतन धनि राहि ।
रास रसिक सह रस अबगाहि ।। 

रंगिनि गन सब रंगहि नटई ।
रनरनि कंकन किंकिन रटई ।। 

रहि-रहि राग रचय रसवंत ।
रतिरत रागिनि रमन बसंत ।। 

रटति रबाब महतिक पिनास ।
राधारमन करु मुरलि बिलास ।। 

 रसमय बिद्यापति कबि भान ।
रूप नारायन भूपति जान ।। (12)


प्रसंग -- प्रस्तुत पद रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित 'विद्यापति की पदावली' में संकलित 'बसंत' खण्ड से लिया गया है। इस खण्ड में मैथिल कोकिल विद्यापति ने वसन्त ऋतु का मनोहर चित्रण किया है।

अवतरित पद में कवि ने वसन्त ऋतु में वृन्दावन में श्रीकृष्ण व गोपियों को रासलीला का वर्णन किया है। 

व्याख्या -- कवि कहता है कि वसन्त ऋतु में रात के समय रसिक श्रीकृष्ण गोपियों के साथ रस में डूबकर आनन्दमय क्रीड़ा कर रहे हैं। रसवंती अर्थात् रस की मर्मज्ञा और रमणियों में रतन बनी सुन्दरी राधा रास क्रीड़ा के रसिक अर्थात् श्री कृष्ण के साथ अब रासलीला में निमग्न हो गई है। भाव यह है कि सर्वश्रेष्ठ रमणी राधा अब श्रीकृष्ण के साथ रामलीला में लीन है। रसिकाएँ अर्थात् रसिक गोपियों भी रस में रंग कर नृत्य कर रही हैं और कँगन तथा किंकिनी से रण-रण का स्वर निकल रहा है। रसिक श्रीकृष्ण रह-रहकर राग रस की रचना कर रहे हैं। इस प्रकार वसन्त ऋतु में रागिनी (प्रेमिका) और राम (प्रेमी) दोनों रति में लीन हैं। कहने का भाव यह है कि राधा व श्रीकृष्ण दोनों ही रति क्रीड़ा में लीन होकर रमण कर रहे हैं। सारंगी, वीणा और पिनास वाद्ययन्त्रों से ध्वनियों निकल रही हैं और राधा के प्रिय श्रीकृष्ण अपनी मुरली बजाते हुए रासलीला में लीन हैं।

कवि विद्यापति अपनी रसमय वाणी में कहते हैं कि राजा शिवसिंह रूपनारायण इस रस के ज्ञाता हैं।
मलय पवन बह । बसंत विजय कह ।।
भमर करइ रोर । परिमल नहि ओर ।।
रितुपति रंग देला । हृदय रभस भेला ।।
अनंग मंगल मेलि । कामिनि करथु केलि ।।
तरुन तरुनि संगे । रयनि खेपबि रंगे ।।
बिहरि बिपद लागि । केसु उपजल आगि ।।
कबि बिद्यापति भान । मानिनी जीवन जान ।।
नृप रुद्रसिंह बरु । मेदिनि कलप तरु । (13)


प्रसंग -- प्रस्तुत पद रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित 'विद्यापति की पदावली' में संकलित 'बसन्त' खण्ड में से लिया गया है। इस खण्ड में मैथिल कोकिल विद्यापति ने वसन्त ऋतु का मनोहर वर्णन किया है।

अवतरित पद में कवि ने वसन्त ऋतु में प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण उत्पन्न होने वाली काम भावना का वर्णन किया है।

व्याख्या -- कवि कहता है कि दक्षिण दिशा से आने वाली मलय पवन वह रही है मानों वह शिशिर ऋतु पर वसन्त ऋतु की विजय की कथा कह रही हो। भँवरें उड़-उड़ कर शोर कर रहे हैं तथा सुगन्धि का कोई ओर-छोर नहीं है। ऋतुओं के राजा वसन्त ने सब ओर अपना रंग डाल दिया है अर्थात् प्रभाव फैला दिया। इसलिए सभी प्राणियों के हृदय में उल्लास भर गया है। भाव यह है कि हृदय में काम भावना का संचार हो गया है। कामदेव ने इस अवसर को और भी मंगलमय बना दिया है। इसीलिए सभी ओर रमणियों क्रीड़ा कर रही हैं। युवक व युवतियों साथ-साथ रहते हैं तथा वे सारी रात आनन्द में ही व्यतीत कर रहे हैं। जिस युवती का प्रेमी अथवा पति समीप नहीं है उस विरहिणी को यह वसन्त ऋतु कष्टदायक लग रही है और उसे लगता है कि मानों लाल किंशुक पुष्प से भी अग्नि उत्पन्न हो रही हो। कवि विद्यापति कहते हैं कि हे मानिनी! तुम जीवन की विरह दशा को समझो।

राजा रुद्रसिंह इस पृथ्वी पर कल्पवृक्ष के समान सबकी कामना पूरी करने वाले हैं | अतः तुम उनका वरण करो | 

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