विद्यापति पदावली : वंदना ( Vidyapati Padavali : Vandana )

नन्दक नन्दन कदम्बक तरु-तर
धिरे धिरे मुरलि बजाव ।

समय- संकेत-निकेतन बइसल
बेरि बेरि बोलि पठाव ।

सामरि, तोरा लागि
'अनुखन विकल मुरारि ।

जमुना के तिर उपवन उद्वेगल
फिरि फिरि ततहि निहारि ।

गोरस बेंचए अवइत जाइत
जनि जनि पूछ बनमारि ।

तोहे मतिमान, सुमति, मधुसूदन
बचन सुनह किछु मोरा ।

मनइ विद्यापति सुन बरजौवति
बन्दह नन्द - किसोरा । (1)

प्रसंग -- प्रस्तुत पंक्तियाँ रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित 'विद्यापति पदावली' से अवतरित हैं | इन पंक्तियों श्रीकृष्ण की स्तुति की गई है | श्री कृष्ण-मिलन स्थल पर समय से पहले पहुंच जाते हैं लेकिन राधा के वहां न पहुंचने पर वे व्याकुल हो उठते हैं | इन पंक्तियों में राधा की सखी राधा को मिलन-स्थल पर जाने के लिए प्रेरित करती है |

व्याख्या -- कवि कहते हैं कि श्रीकृष्ण की दूती या राधा की सखी राधा से कहती है कि हे राधा। नन्द के पुत्र श्रीकृष्ण कदम्ब के पेड़ के नीचे बैठकर धीरे-धीरे मुरली बजा रहे हैं | उन्होंने तुमसे मिलने का जो समय व स्थान निश्चित किया था वे उसी स्थान पर बैठकर बार-बार तुम्हें बुलाने का संदेश भेज रहे हैं। कहने का अभिप्राय यह कि वे मुरली के स्वर में बार-बार तुम्हारा नाम लेकर तुम्हें बुलाते हैं। हे श्यामा। तुम्हारे लिए ही श्रीकृष्ण प्रति क्षण व्याकुल हो रहे हैं। यमुना नदी के तट पर स्थित उपवन में श्रीकृष्ण व्याकुल होकर घूमते हुए मुड़-मुड़कर उस मार्ग की ओर देखने लगते हैं जिस मार्ग से तुम्हारे वहाँ आने की सम्भावना है। श्रीकृष्ण उस मार्ग से दूध-दही आदि गोरस को बेचने के लिए आने-जाने वाली गोपियाँ से तुम्हारे विषय में पूछते हैं। हे राधा ! तुम स्वयं बुद्धिमती हो और श्रीकृष्ण भी सद्बुद्धि वाले हैं । फिर तुम्हें मेरी इतनी बात तो अवश्य सुननी चाहिए। विद्यापति कहते हैं -- हे श्रेष्ठ युवती राधा! मेरी बात सुनो। तुम शीघ्र ही वहाँ पहुँचकर नन्द के पुत्र श्रीकृष्ण की वन्दना करो अर्थात शीघ्र ही श्रीकृष्ण से जाकर मिलो।
राधा-वंदना

देख देख राधा रूप अपार ।
अपुरुब के बिहि आनि मिलाओल
खिति-तल लावनि-सार ।

अंगहि अंग अर्नंग मुरछायत
हेरए पड़ए अथीर ।

मनमथ कोटि-मथन करु जे जन
से हेरि महि-मधि गीरं ।

कत कत लखिमी चरन-तल नेओछए
रंगिनि हेरि बिभोरि ।

करु अभिलाख मनहि पदपंकज
अहोनिसि कोर अगोरि । (2)

प्रसंग -- प्रस्तुत पंक्तियाँ रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित 'विद्यापति पदावली' से अवतरित हैं | इन पंक्तियों में राधा के अनुपम सौंदर्य का चित्रण किया गया है |

व्याख्या -- कवि राधा के अनुपम सौन्दर्य का वर्णन करते  हुए कहता है -देखो, देखो। राधा के अनुपम सौन्दर्य की ओर देखो। राधा के सौन्दर्य को देखकर ऐसा लगता है मानों विधाता ने इस पृथ्वी पर विद्यमान सारे सौन्दर्य-तत्त्वों को लेकर मिला दिया है। उसके शारीरिक सौन्दर्य को देखकर कामदेव भी अधीर होकर मूर्छित हो जाता है। कहने का भाव यह है कि राधा के अनुपम सौन्दर्य को देखकर सौन्दर्य का देवता कामदेव भी व्याकुल हो उठता है। भले ही श्रीकृष्ण अपनी सुन्दरता से करोड़ों कामदेवों को लज्जित करने में सक्षम हैं, परन्तु वे भी राधा के अनुपम सौन्दर्य को देखकर पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं। कवि कहता है कि राधा की सुन्दरता को देखकर कितनी ही लक्ष्मियाँ अपने आपको उसके चरणों पर न्यौछावर कर देती हैं और न जाने कितनी ही सुन्दरियाँ राधा के सौन्दर्य को मुग्ध होकर देखती रहती हैं। वे सुन्दर नारियाँ अपने मन में अभिलाषा करती हैं कि वे राधा के चरण-कमल को दिन-रात अपनी गोदी में रखकर उनकी रखवाली करें। कहने का भाव यह है कि राधा का सौन्दर्य न केवल पुरुषों को बल्कि सुन्दर युवतियों के हृदयों को भी अपनी ओर आकर्षित करने में सक्षम है।
  देवी-वंदना

जय जय भैरब असुर भयाउनि
पसुपति-भामिनि माया ।

सहज सुमति बर दिअओ गोसाउनि
अनुगति गति तुअ पाया ।

बासर-रैनि सबासन सोभित
चरन, चन्द्रमनि चूड़ा।

कतओक दैत्य मारि मुँह मेलल,
कतओ उगिल कैल कूड़ा ।

सामर बरन, नयन अनुरंजित,
जलद-जोग फुल कोका
कट कट बिकट ओठ-पुट पाँड़रि
लिधुर-फेन उठ फोका ।

घन घन घनए घुघुर कत बाजए,
हन हन कर तुअ काता ।
विद्यापति कबि तुअ पद सेबक,
पुत्र बिसरु जनि माता । (3)

प्रसंग -- प्रस्तुत पंक्तियाँ रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित 'विद्यापति पदावली' से अवतरित हैं | इन पंक्तियों में मंगलाचरण की परंपरा का अनुसरण करते हुए कवि ने देवी भगवती की वंदना की है |


व्याख्या -- कवि देवी भगवती की वन्दना करते हुए कहते हैं कि राक्षसों को भयभीत करने वाली हे भैरवी! हे रूद्र पत्नी ! हे माया तुम्हारी सदा ही जय हो। हे गोस्वामिनी। मुझे ऐसी सहज, स्वाभाविक सद्बुद्धि का वर प्रदान कीजिए ताकि मैं केवल तुम्हारे चरणों को ही एकमात्र शरण मानकर उनका ध्यान धारण करूँ। हे भूतभावनी! आप दिन रात शवों के आसन पर विराजमान रहती हो तथा आपके चरण चन्द्रमणि से युक्त चूड़ों से सुशोभित रहते हैं। हे देवी! आपने कितने ही दैत्यों को मार-मारकर अपने मुख में डाल लिया है अर्थात् उनका भक्षण कर लिया है और न जाने कितने ही राक्षसों को अपने मुँह में चबा-चबाकर उन्हें कुल्ला करके बाहर उगल दिया है। तुम्हारा श्याम वर्ण का शरीर है तथा तुम्हारे नेत्र लाल-लाल हैं। इन दोनों के संयोग से अर्थात् श्याम शरीर पर लाल नेत्र ऐसे दिखाई देते हैं मानो काले बादलों में लाल रंग के कमल खिले हुए हों। हे देवी! आप भयानक रूप से दाँतों को किटकिटाती रहती हो तथा दैत्यों का रक्त पीने के कारण आपके ओठों से खून के झाग से बुलबुले उठते रहते हैं और आपके ओंठ ऐसे लगते हैं मानों अड़ोहल के फूल खिले हुए हों। हे देवी! तुम्हारे पैरों में बँधे घूँघरू से छन-छन की ध्वनि उठ रही है तथा तुम्हारी तलवार से हन हन अर्थात् मारो मारो की ध्वनि निकल रही है | कवि कहता है कि हे माता! मैं  तुम्हारे चरणों का सेवक हूँ, इसलिए आप अपने इस पुत्र को विस्मृत मत कर देना अर्थात सदैव मुझ पर अपनी कृपा-दृष्टि बनाये रखना ।

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