ध्रुवस्वामिनी नाटक की तात्विक समीक्षा

ध्रुवस्वामिनी नाटक की तात्विक समीक्षा
ध्रुवस्वामिनी नाटक की तात्विक समीक्षा

ध्रुवस्वामिनीजयशंकर प्रसाद द्वारा रचित एक ऐतिहासिक नाटक है | इस नाटक में सम्राट समुद्रगुप्त के पश्चात के उस काल को दिखाया गया है जिसमें गुप्त वंश की बागडोर एक निर्बल व कायर शासक रामगुप्त के हाथों में आ गई थी और गुप्त वंश पतन की ओर अग्रसर था | यद्यपि सम्राट समुद्रगुप्त अपने छोटे पुत्र चंद्रगुप्त को उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे लेकिन अमात्य शिखर स्वामी के सहयोग से एक षड्यंत्र द्वारा ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त ने राजसत्ता हथिया ली | ध्रुवस्वामिनी नाटक की तात्विक समीक्षा के उपरांत कहा जा सकता है कि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित अन्य नाटकों की भांति ध्रुवस्वामिनी भी एक उत्कृष्ट ऐतिहासिक नाट्य कृति है |

नाटक के तत्वों के आधार पर ‘ध्रुवस्वामिनी’ की समीक्षा ( Natak Ke Tattvon Ke Aadhar Par ‘Dhruvsvamini’ Ki Samiksha )

कतिपय विद्वानों ने नाटक के छह अनिवार्य तत्व माने हैं –

1.कथावस्तु या कथावस्तु

2. पात्र एवं चरित्र चित्रण

3.  संवाद व कथोपकथन

4.  देशकाल व वातावरण

5.अभिनेयता

6. उद्देश्य

नाटक के इन अनिवार्य तत्वों के आधार पर ध्रुवस्वामिनी नाटक की समीक्षा इस प्रकार की जा सकती है :-

1️⃣ कथावस्तु

कथावस्तु किसी भी नाटक का मूल आधार होता है जिसके आधार पर संपूर्ण नाटक का खाका खींचा जाता है | ध्रुवस्वामिनी नाटक की कथावस्तु के आधार पर समीक्षा करने से पूर्व इसके संक्षिप्त कथासार को जानना आवश्यक है |

ध्रुवस्वामिनी नाटक तीन अंकों में विभक्त है | प्रथम अंक रामगुप्त के शिविर में आरंभ होता है, दूसरा अंक शकराज के शिविर में आरंभ होता है तथा तृतीय व अंतिम अंक का पर्दा शकदुर्ग के भीतरी प्रकोष्ठ में उठता है और वहीं  ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक का अंत होता है |

यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपने बड़े भाई राम गुप्त की हत्या कर उसकी पत्नी से विवाह कर लिया था परंतु इस नाटक में सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय के द्वारा उठाए गए इस कदम के पीछे के कारणों  की पड़ताल की गई है |

ऐसा माना जाता है कि रामगुप्त अत्यंत कायर और विलासी प्रवृत्ति का था और सम्राट बनने के लिए सर्वथा अयोग्य था | इसीलिए सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने छोटे पुत्र चंद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था परंतु रामगुप्त अपने अमात्य   शिखर स्वामी के साथ मिलकर एक षड्यंत्र रचता है और चंद्रगुप्त की वाग्दत्ता पत्नी ( मंगेतर ) अथवा प्रेयसी ध्रुवस्वामिनी से विवाह कर लेता है और स्वयं राजसिंहासन पर अधिकार कर लेता  है |

इस पर भी चन्द्रगुप्त स्वेच्छा से रामगुप्त को सम्राट स्वीकार कर लेता है | ध्रुवस्वामिनी भी धीरे-धीरे अपने आप को परिस्थितियों के अनुसार ढालने की कोशिश करने लगती है |
परंतु उस समय चंद्रगुप्त के सब्र का बांध टूट जाता है जब रामगुप्त अपनी कायरता की सभी हदों को पार करते हुए अपनी पत्नी ध्रुवस्वामिनी को शकराज को सौंपने के लिए तैयार हो जाता है |

चंद्रगुप्त स्वयं ध्रुवस्वामिनी के वेश में शकराज के शिविर में जाता है और उसका वध कर देता है |

रामगुप्त धोखे से चंद्रगुप्त की हत्या करना चाहता है तो एक सामंत रामगुप्त को देख लेता है और उसकी हत्या कर देता है |

अंत में चंद्रगुप्त ध्रुवस्वामिनी से विवाह कर लेता है और चंद्रगुप्त सम्राट व ध्रुवस्वामिनी साम्राज्ञी बन जाती है |

इस प्रकार ध्रुवस्वामिनी नाटक की कथावस्तु अत्यंत रोचक सरस व सुगठित है जो सहज व स्वाभाविक रूप से विकसित होती है | इसमें सर्वत्र रोचकता एवं जिज्ञासा बनी रहती है | गीतों के समावेश से कथावस्तु और अधिक मार्मिक,  संवेदनशील व प्रभावशाली बन गई है |

2️⃣ पात्र और चरित्र-चित्रण

किसी भी नाट्य कृति की सफलता-असफलता में पात्र-योजना निर्णायक भूमिका निभाती है | पात्र ही  कथावस्तु को गति प्रदान करते हैं | रंगमंच पर पात्रों के माध्यम से ही कथावस्तु दर्शकों तक पहुंचती है |

पात्र-योजना के दृष्टिकोण से ध्रुवस्वामिनी एक सफल नाटक है | सभी पात्र नाटक में स्वाभाविक भूमिका निभाते हुए प्रतीत होते हैं ; कोई भी पात्र अनावश्यक नहीं लगता |

नाटक के प्रमुख पात्रों में चंद्रगुप्त,  ध्रुवस्वामिनी,  रामगुप्त, शकराज  व शिखर स्वामी को लिया जा सकता है जबकि गौण पात्रों में मिहिर देव, मंदाकिनी,  कोमा आदि आते हैं |
इनमें से कुछ पात्र सद्गुणों को लिए हुए हैं तो कुछ खल पात्र कहे जा सकते हैं |

चंद्रगुप्त ,  ध्रुवस्वामिनी, मंदाकिनी, मिहिर देव, कोमा आदि सदगुणों से युक्त हैं तो रामगुप्त, शकराज, शिखर स्वामी आदि खल पात्र हैं |

चन्द्रगुप्त को ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक का नायक कहा जा सकता है | वह वीरता, पराक्रम तथा मानवीय गुणों से युक्त है | अपने बड़े भाई रामगुप्त के द्वारा जबरन सत्ता हथिया लेने तथा अपनी वाग्दत्ता पत्नी ध्रुवस्वामिनी के खो देने के बाद भी वह अपने बड़े भाई का विरोध नहीं करता लेकिन मन ही मन वह ध्रुवस्वामिनी से प्रेम करता रहता है और चाह कर भी उसे भुला नहीं पाता | यह मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुकूल है |

ध्रुवस्वामिनी का पात्र कई मायनों में महत्वपूर्ण है | एक तरफ वह अपने व्यक्तिगत कष्टों की अभिव्यक्ति करती है वहीं दूसरी ओर  वह नाटक में कई स्थानों पर सदियों से नारी पर हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाकर नाटक की मूल समस्याओं की ओर संकेत करती है |

चंद्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी के पात्र अंतर्द्वंद से जूझते हुए पात्र भी प्रकट होते हैं | जो अपने मन की भावनाओं को दबा कर एक-दूसरे से विलग होकर जीने को विवश हैं |

रामगुप्त, शिखर स्वामी और शकराज के पात्र मानव की बुरी प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं |

कोमा, मंदाकिनी और मिहिर देव के पात्र यद्यपि नाटक में बहुत थोड़े समय के लिए आते हैं लेकिन अपना अमिट प्रभाव छोड़ जाते हैं |

कुछ आंशिक त्रुटियां होने के बावजूद पात्र एवं चरित्र चित्रण के दृष्टिकोण से ध्रुवस्वामिनी एक सफल रचना कही जा सकती है |

3️⃣ संवाद व कथोपकथन

नाट्य कृति में संवाद सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं | यह संवाद कथानक व पात्रों  के अनुकूल होने चाहिए | प्राय: छोटे-छोटे संवाद अधिक प्रभाव छोड़ते हैं | रंगमंच पर छोटे संवाद अधिक प्रभावशाली सिद्ध होते हैं लेकिन साहित्यिक नाटक में कई बार बड़े-बड़े संवाद कई दार्शनिक पहलू उजागर कर जाते हैं |

जब रामगुप्त, ध्रुवस्वामिनी को भेंट स्वरूप शकराज के पास भेजने के लिए तैयार हो जाता है तो ध्रुवस्वामिनी टूट जाती है | और रामगुप्त के समक्ष समर्पण करते हुए कहती है —

“मेरी रक्षा करो | मेरे और अपने गौरव की रक्षा करो | राजा, आज मैं शरण की प्रार्थिनी हूँ | मैं स्वीकार करती हूं कि आज तक मैं तुम्हारे विलास की सहचरी नहीं हुई किंतु मेरा अहंकार चूर्ण हो गया है | मैं तुम्हारी होकर रहूंगी |”

नाटक के अंत में मंदाकिनी भूलवश ध्रुवस्वामिनी को भाभी कह जाती है तो ध्रुवस्वामिनी चंद्रगुप्त के प्रति अपने हृदय में छिपे प्रेम को अभिव्यक्त करते हुए कहती है :–

“मंदा ! भूल से ही तुमने आज एक प्यारी बात कह दी | उसे क्या लौटा लेना चाहती हो | आह ! यदि वह सत्य होती |”

इस प्रकार नाटक के संवाद अत्यंत प्रभावशाली बन पड़े हैं यद्यपि नाटक में तत्सम प्रधान शब्दावली की प्रधानता है | इसके बावजूद संवाद सरल, सहज व स्वाभाविक हैं और कथानक को गति प्रदान करते हैं |

4️⃣ देशकाल व वातावरण

नाटक मंचन के लिए लिखे जाते हैं तथा इनमें देशकाल व वातावरण का विशेष ध्यान रखा जाता है | ध्रुवस्वामिनी नाटक की कथा का आधार गुप्त वंश है | इसमें समुद्रगुप्त के पश्चात चंद्रगुप्त द्वितीय के राजा बनने तक के काल को दर्शाया गया है | यह समय सीमा लगभग 375 ईसवी से 380 ईसवी के बीच की मानी जा सकती है |

प्रस्तुत नाटक में जयशंकर प्रसाद ने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की है कि इस कथा के माध्यम से गुप्त वंश की राजनीतिक, आर्थिक,  सामाजिक व धार्मिक स्थिति को पाठकों के समक्ष उसी रूप में प्रस्तुत किया जा सके जिस रूप में कभी वह हुआ करती होगी लेकिन इसके साथ-साथ प्रसाद जी ने अपनी कल्पना के माध्यम से कुछ आदर्शों की सृष्टि भी की है | जैसे कथा के अंत में धर्मगुरु स्वयं रामगुप्त से ध्रुवस्वामिनी के तलाक की व्यवस्था करते हैं और कहते हैं मैं स्पष्ट कहता हूँ कि धर्मशास्त्र रामगुप्त से ध्रुवस्वामिनी के मोक्ष की आज्ञा देता है |

इस नाटक में रामगुप्त की विलासिता, स्वार्थपरता चंद्रगुप्त की वीरता पराक्रम, ध्रुवस्वामिनी और कोमा की विवशता सब कुछ तत्कालीन परिस्थितियों के अनुकूल है |

पात्रों की वेशभूषा और सामाजिक-धार्मिक परंपराओं का यथार्थ अंकन करते हुए देशकाल एवं वातावरण की दृष्टि से इस नाटक को सफल बनाने की यथासंभव चेष्टा की गई है |

5️⃣ अभिनेयता

किसी भी नाट्य कृति की सफलता के लिए परम आवश्यक है कि उसमें अभिनेयता का गुण हो | ध्रुवस्वामिनी प्रसाद जी की अंतिम नाट्य कृति है | उस समय तक प्रसाद जी की नाट्य कला अपने चरम पर पहुंच चुकी थी | इसलिए ध्रुवस्वामिनी नाटक अभिनेयता और रंगमंच की दृष्टि से एक प्रौढ़ कृति है |
नाटक तीन अंकों में विभक्त है और प्रत्येक अंक में एक ही दृश्य है | सारा घटनाक्रम बहुत थोड़ी अवधि में पूर्ण हो जाता है |

प्रत्येक दृश्य के आरंभ में और उन सभी स्थानों पर जहां दृश्य के बीच में नवीन पात्रों के प्रवेश के कारण वस्तु स्थिति में परिवर्तन की आवश्यकता पड़ी है वहां सूचनाओं द्वारा परिचय दिया गया है ताकि भ्रम कि कोई स्थिति उत्पन्न न हो सके | रंगमंच के लिए आवश्यक सभी संकेतों का सृजन किया गया है | दृश्य छोटे छोटे हैं और मंचन में सरल हैं | यह सरलता देशकाल के ज्ञान में किसी प्रकार की कमी नहीं आने देती |

लेखक ने रंग-सजा और क्रिया-व्यापार के आवश्यक संकेत भी ‘ध्रुवस्वामिनी’ में यथा स्थान दिए हैं | इन संकेतों से पात्रों की मानसिक स्थिति मुख-मुद्रा और आंगिक चेष्टाओं का स्पष्टीकरण हो जाता है |

गीत-योजना जयशंकर प्रसाद के नाटकों को एक नया वैशिष्ट्य प्रदान करती है | यह गीत पात्रों की मन:स्थिति और अंतर्द्वंद्व को व्यक्त करते हैं |

संकलनत्रय  की योजना भी नाटक को जीवंत बनाती है | संवाद संक्षिप्त एवं सजीव हैं जो किसी भी नाटक के मंचन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है |
इस प्रकार अभिनेयता की दृष्टि से ध्रुवस्वामिनी एक सफल नाटक है |

6️⃣ उद्देश्य

सभी साहित्यिक रचनाओं का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है | प्रसाद जी के नाटक एक विशिष्ट उद्देश्य से युक्त होते हैं |

अपनी रचनाओं के उद्देश्य के संबंध में प्रसाद जी स्वयं कहते हैं – ” मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अंश से उन घटनाओं का दिग्दर्शन कराने की है जिन्होंने हमारी वर्तमान स्थिति को बनाने का बहुत कुछ प्रयत्न किया है |”

इस आधार पर ‘ध्रुवस्वामिनी'( Dhruvswamini )  नाटक का प्रमुख उद्देश्य इतिहास के उन प्रसंगों पर प्रकाश डालना है जिन पर प्रायः इतिहासकार मौन रहे हैं |
अपने बड़े भाई की हत्या करने और उसकी पत्नी से विवाह करने के बावजूद चंद्रगुप्त पाठकों की सहानुभूति को प्राप्त कर जाते हैं  शायद यही प्रसाद जी का एक उद्देश्य रहा है क्योंकि इतिहास इस तथ्य को तो बताते हैं कि चंद्रगुप्त ने रामगुप्त का वध कर उसकी पत्नी को अपनाया लेकिन इसके पीछे छिपे हुए कारणों की व्याख्या नहीं करते|

प्रसाद जी स्पष्ट करते हैं कि राष्ट्र का कुशलतापूर्वक संचालन रामगुप्त जैसे कायर नहीं बल्कि चंद्रगुप्त जैसे सबल शासक ही कर सकते हैं |

इसके अतिरिक्त ध्रुवस्वामिनी के माध्यम से नारी की उन समस्याओं का चित्रण भी किया गया है जिनसे भारतीय समाज प्राचीन काल से लेकर आज तक जूझता रहा है | नारी को अपनी भोग-विलास की वस्तु समझना, अपने स्वार्थ के लिए उसका प्रयोग करना, उसकी हृदय की भावनाओं को कुचलकर उसे विभिन्न बंधनों में बांधना, यहां तक कि शादी जैसे पवित्र बंधन के लिए भी उसकी इच्छाओं को अनदेखा कर देना आदि कुछ ऐसी समस्याएं हैं जो इस नाटक में उठाई गई हैं |

परंतु नाटक के अंत में जयशंकर प्रसाद जी कल्पना के माध्यम से इस समस्या का निराकरण करते हैं जब धर्मगुरु स्वयं रामगुप्त से ध्रुव स्वामिनी की मुक्ति को धर्म-अनुकूल मानते हैं |

नाटक के अंत में लोकतांत्रिक मूल्यों को भी दिखाया गया है जहां जनता स्वयं अयोग्य शासक को हटाने का निर्णय लेती है  |

इस प्रकार प्रसाद जी ने ‘ध्रुवस्वामिनी'( Dhruvsvamini ) नाटक के माध्यम से अनेक उद्देश्यों की पूर्ति की है |
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि नाटक के तत्वों के आधार पर ‘ध्रुवस्वामिनी’ ( Dhruvswamini ) एक सफल नाटक है |

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