का सिंगार ओहि बरनौं राजा। ओही का सिंगार ओही पै छाजा।। प्रथमहि सीस कस्तूरी केसा। बलि बासुकि को औरु नरेसा || भंवर केश वह मालती रानी। बिसहर लुरहीं लेहिं अरघानी।। बेनी छोरी झारु जौं बारा। सरग पातर होइ अंधियारा || कंवल कुटिल केस नाग करे। तरंगहिं अंतिम भुंग बिसारे॥ बेधे जानु मलैगिरि बासा। सीस चढ़े लोथहिं चहुं पासा || घुंरवारी अलकेन बिखभरीं। सिंकरी पेम चाहहिं गयं परीं || अस फंदवारे केस वै राजा पारा सीस गियां फंद | अस्तौ कुरी नाग ऑर्गने भ केशनहि के बंद ॥ (1) प्रसंग-- प्रस्तुत काव्यांश मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य 'पद्मावत' के 'नखशिख खण्ड' से अवतरित है | इन पंक्तियों में हीरामन तोता रत्नसेन के समक्ष पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन करता है | व्याख्या -- हीरामन तोता रत्नसेन के समक्ष पद्मावती की केशों के सौंदर्य का वर्णन करते हुए कहता है कि हे राजा ! मैं उस पद्मावती के श्रृंगार के सौंदर्य का क्या वर्णन करूं? उसका श्रृंगार तो केवल उसी के शरीर पर सुशोभित हो सकता है। फिर भी उनके रूप में सुंदर की बात कहने से पहले मैं उनके केश का वर्णन करता हूं जो कस्तूरी के समान काले और सुगंधित हैं। यही कारण है कि सर्पराज शेषनाग उन पर न्योछावर हो जाते हैं, शेष अन्य राजाओं की तो बात ही क्या है? यानी उनके बाल वासुकि से भी ज्यादा काले और सुंदर हैं। पद्मावती स्वयं में मालती के पुष्प के समान है काले बाल भ्रमर के रूप में वह पर मंदराते रहते हैं। उसके केश काले विष अत्यंत सर्पों की भाँति चमकते रहते हैं मनो पद्मावती रूपी मालती पुष्प की सुगंधि लेने का प्रयास कर रहे हैं। जब पद्मावती अपनी वेणी (केशराशि/गूंठ) को खोल कर बालों को झाड़ती है तब उन काले बालों की श्यामलता के कारण स्वर्ग से पाताल तक काला कालापन हो जाता है अर्थात उसके बाल काले और घने होते हैं। उसका काला नाग रूपी केश अत्यंत कोमल, घुंघराले और काले जो ऐसे दिखते हैं, जैसे-जैसे-जैसे दिखते हैं। उनके बालों को देखने पर ऐसा आभास होता है जैसे पद्मावती के शरीर रूपी मलयाचल से चंदन की सुगंध आ रही हो और उस सुगंध ने उन्हें (सर्प को) छोड़ दिया हो। इसी कारण वे पद्मावती के सिर पर चढ़ कर चारों ओर लोट रहे हैं। इस पद्मावती के बालों का घुंघरालापन मानो विष से भरा हुआ है। उसके बाल प्रेम की जंजीरें किसी के गले में दिखती हैं यानी जो भी व्यक्ति उसके घुंघराले बालों को देखता है वह उसके प्रेम में डूबा रहता है। जैसे-विष से सबसे पहले समुद्री लहरें आ रही हैं। उनके बालों को देखने पर ऐसा आभास होता है जैसे पद्मावती के शरीर रूपी मलयाचल से चंदन की सुगंध आ रही हो और उस सुगंध ने उन्हें (सर्प को) छोड़ दिया हो। इसी कारण वे पद्मावती के सिर पर चढ़ कर चारों ओर लोट रहे हैं। इस पद्मावती के बालों का घुंघरालापन मानो विष से भरा हुआ है। उसके बाल प्रेम की जंजीरें किसी के गले में दिखती हैं यानी जो भी व्यक्ति उसके घुंघराले बालों को देखता है वह उसके प्रेम में डूबा रहता है। जैसे-विष से सबसे पहले समुद्री लहरें आ रही हैं। उनके बालों को देखने पर ऐसा आभास होता है जैसे पद्मावती के शरीर रूपी मलयाचल से चंदन की सुगंध आ रही हो और उस सुगंध ने उन्हें (सर्प को) छोड़ दिया हो। इसी कारण वे पद्मावती के सिर पर चढ़ कर चारों ओर लोट रहे हैं। इस पद्मावती के बालों का घुंघरालापन मानो विष से भरा हुआ है। उसके बाल प्रेम की जंजीरें किसी के गले में दिखती हैं यानी जो भी व्यक्ति उसके घुंघराले बालों को देखता है वह उसके प्रेम में डूब जाता है। हे राजन ! उसके बालों के फाँदे जैसी लटें किसी भी व्यक्ति को अपने प्रेमरूपी फाँदे में फाँस सकती हैं। उसके बालों की लटों में आठ प्रकार के नागकुल के प्रधान भी पराजित होकर बंदी बन गए हैं |
बरनौं मांग सीस उपराहीं । सेंदुर अबहिं चढ़ा तेहि नाहीं ।। बिनु सेंदुर अस जानहुं दिया । उजिअर पंथ रैनि महं किया || कंचन रेख कसौटी कसी । जनु घन महं दामिनी परगसी || सुरुज किरिन जस गगन बिसेखी। जमुना मांझ सरसुती देखी || खांडै धार रुहिर जनु भरा । करवत लै बेनी पर धरा || तेहि पर पूरि धरे जौं मोंती । जमुना मांझ गांग कै सोती || करवत तपा लेहिं होइ चूरू । मकु सो रुहिर लै देइ सेंदूरू || कनक दुआदस बानि होइ चह सोहाग वह मांग। सेवा करहिं नखत औ तरई उऐ गगन निसि गांग || (2) प्रसंग-- प्रस्तुत काव्यांश मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य 'पद्मावत' के 'नखशिख खण्ड' से अवतरित है | इन पंक्तियों में हीरामन तोता रत्नसेन के समक्ष पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन करता है | व्याख्या -- हीरामन तोता कहता है कि मैं पद्मावती के सिर के ऊपर की माँग का वर्णन करता हूँ, जिसमें अभी सिंदूर नहीं भरा गया है अर्थात् अभी वह अविवाहित है। बालों में बिना सिंदूर के उसकी माँग दीपक के समान प्रतीत होती है, जिसने रात्रि में किसी संकीर्ण मार्ग को प्रकाशित कर रखा हो। काले बालों में वह माँग ऐसी दिखाई देती है मानो काली कसौटी पर खींची गई स्वर्ण की रेखा हो, अथवा ऐसा लगता है मानो बादलों के मध्य बिजली चमक रही हो। अथवा आकाश में कोई विशेष सूर्य की किरण हो। अथवा नीलवर्ण वाली यमुना के मध्य में सरस्वती दिखाई पड़ रही हो। अथवा खून से भरी हुई तलवार हो अथवा कोई आरा लेकर बालों में रख दिया गया। माँग में गुंथी हुई मोतियों की लड़ी सुसज्जित है तथा काले केशों में मोतियों की वह लड़ी ऐसी प्रतीत होती है मानो यमुना में गंगा की धारा प्रवाहित हो रही हो। बहुत-से तपस्वी आरा से अपने आपको इस लिए चिरवा देते हैं कि शायद यह पद्मावती हमारे रक्त रूपी सिंदूर से अपनी माँग भर ले और हम धन्य हो जायें। जैसे सोने को शत-प्रतिशत शुद्ध करने के लिए सुहागे के प्रयोग की इच्छा की जाती है उसी प्रकार वह पद्मावती भी पूर्ण रूप से अपने सौभाग्य अर्थात विवाह रूपी सोहागे की कामना करती है। उसकी माँग की मोतियों की लड़ियाँ नक्षत्र और तारों के रूप में उसकी सेवा करती हैं और ऐसी प्रतीत होती हैं जैसे आकाश में रात्रि के समय आकाशगंगा का उदय हो गया हो।
हौं लिलाट दुइज कै जोती । दुइजिहि जोति कहाँ जग ओती ।। सहस करूँ जो सुरुज दिपाई । देखि लिलाट सोउ छपि जाई ।। कर सरबरि तेहि देउं मयंकू । चाँद कलंकी वह निकलंकू ।। औ चाँदहि पुनि राहु गरासा। वह बिनु राहु सदा परगासा ।। तेहि लिलाट पर तिलक बईठा । दुइजि पाट जानहुँ ध्रुव डीठा ।। कनक पाट जनु बैठेउ राजा । सबै सिंगार अत्र लै साजा ।। ओहि आगें थिर रहै न कोऊ । दहुँ का कहँ अस जुरा संजोऊ ।। खरग धनुक औ चक्र बान दुइ जग मारन तिन्ह नाऊं। सुनि कै परा मुरुछि कै राजा मो कहँ भए एक ठाऊं । । (3) प्रसंग-- प्रस्तुत काव्यांश मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य 'पद्मावत' के 'नखशिख खण्ड' से अवतरित है | इन पंक्तियों में हीरामन तोता रत्नसेन के समक्ष पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन करता है | व्याख्या -- अब मैं पद्मावती के ललाट (भाल) का वर्णन करता हूँ जो द्वितीया के चन्द्रमा के समान उज्ज्वल है, परन्तु द्वितीया के चन्द्रमा में उतनी ज्योति नहीं है जितनी पद्मावती के भाल में है। जब सूर्य अपनी हजारों किरणों से चमकता है तो वह भी उसके ललाट के प्रकाश को देखकर छिप जाता है। अतः सूर्य की ज्योति भी उसके चमकते ललाट के समक्ष तुच्छ है। उसके ललाट से चन्द्रमा की भी क्या तुलना की जाय? चन्द्रमा में तो कलंक है, परन्तु उसका भाल कलंक रहित है। इसके अतिरिक्त, चन्द्रमा को राहु ग्रस नेता है लेकिन पद्मावती का भाल बिना ग्रसे हुए प्रकाश करता रहता है। दूसरी बात यह है कि उसके ललाट पर बिन्दी लगी हुई है जो ऐसी प्रतीत होती है जैसे द्वितीया के चन्द्रमा को सिंहासन बना कर ध्रुव तारा उस पर बैठा हुआ हो। अथवा उसका ललाट ऐसा लगता है मानो सोने के बने हुए सिंहासन पर कोई राजा बैठा हो जो सभी प्रकार के श्रृंगार से तथा अस्त्रों से सुसज्जित हो। पद्मावती के ललाट रूपी राजा के सामने कोई भी नहीं टिक सकता। यह ज्ञात नहीं है कि उसने संग्राम की यह तैयारी किसलिए की है। हीरामन तोते ने रत्नसेन से कहा कि हे राजन! नासिका रूपी तलवार, भौंह रूपी धनुष तथा दोनों पुतलियों रूपी दो चक्राकार बाण उस पद्मावती के पास हैं जो संसार को मारने के लिए प्रसिद्ध हैं। पद्मावती के इस प्रकार के सौन्दर्य को सुनकर राजा रत्नसेन मूर्छित होकर गिर पड़ा और उसके मुख से निकल पड़ा कि मानो मुझे मारने के लिए ही ये एक साथ इकट्ठे हुए हैं |
भौंहें स्याम धनुकु जनु ताना । जासौं हेर मार बिख बाना || उहै धनुक उन्ह भौंहन्ह चढ़ा । केइ हतियार काल अस गढ़ा || उहैं धनुक किरसुन पहं अहा । उहै धनुक राघौ कर गहा || उहै धनुक रावन संघारा । उहै धनुक कंसासुर मारा || उहै धनुक बेधा हुत राहू | मारा ओहीं सहस्सर बाहू || उहै धनुक मैं ओपहं चीन्हा । धानुक आपु बेझ जग कीन्हा || उन्ह भौंहन्हि सरि केउ न बीता। आछरिं छपीं छपीं गोपीता || भौंह धनुक धनि धानुक, दोसर सरि न कराइ । गगन धनुक जो ऊगवै लाजन्ह सो छपि जाइ ॥ (4) प्रसंग-- प्रस्तुत काव्यांश मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य 'पद्मावत' के 'नखशिख खण्ड' से अवतरित है | इन पंक्तियों में हीरामन तोता रत्नसेन के समक्ष पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन करता है | इन पंक्तियों में पद्मावती की भौहों की सुंदरता का वर्णन किया गया है | व्याख्या -- पद्मावती की काली भौंहें ऐसी प्रतीत होती हैं मानो संधान किया हुआ धनुष हो। अपनी तिरछी भौहों से वह जिसकी ओर देखती है उसे ज्ञात होता है जैसे विष के बाण मार रही हो। विष के बाण छोड़ने वाला धनुष उसकी भौहों के रूप में दिखाई पड़ता है। न जाने किस हत्यारे ने काल के समान उसका निर्माण किया है। वही धनुष कृष्ण के पास रहता था। राम ने भी उसी धनुष को हाथ में लिया था और उसी से रावण को मार डाला था। उसी धनुष से कृष्ण ने कंस नामक असुर को मारा था। इसी धनुष से राहु नामक मत्स्य को अर्जुन ने बेंध दिया था तथा परशुराम ने सहस्रार्जुन को मार दिया था। अतः वही शक्तिशाली धनुष उनके पास है जिसे मैंने पहचान लिया है। वह ( पद्मावती ) स्वयं धनुर्धर बनकर समस्त संसार को बंध रही है उन भौहों के समान न किसी की भौहें हैं और न उन्हें कोई जीतने में समर्थ है अर्थात् पद्मावती के भौंह रूपी धनुष से कोई भी बच नहीं सका है। इसी कारण उससे हारकर अप्सराएँ व गोपियाँ छिप गई। इस प्रकार के भौंहों रूपी धनुष को धारण करने वाली यह पद्मावती रूपी धनुषधारिणी धन्य है जिसकी कोई समानता नहीं कर सकता। आकाश में जो इन्द्रधनुष निकलता है वह भी उस धनुष से अपनी समानता नहीं कर पाता परिणामस्वरूप लज्जित होकर छिप जाता है।
नैन बांक सरि पूज न कोऊ । मान समुंद अस उलथहिं दोऊ || राते कंवल करहिं अलि भवां । घूमहिं मांति चहहिं उपसवां || उठहिं तुरंग लेहिं नहिं बागा । चाहहिं उलथि गगन कहं लागा || पवन झकोरहिं देहिं हलोरा । सरग लाइ भुई लाइ बहोरा || जग डोलै डोलत नैनाहां । उलटि अड़ार चाह पल माहां || जबहिं फिराव गंग गहि बोरा । अस वै भंवर चक्र के जोरा || समुंद हिंडोर करहिं जनु झूले । खंजन लुरहिं मिरिंग जनु भूले || सुभर समुंद अस नैन दुइ, मानिक भरे तरंग । आवत तीर जाहिं फिरि, काल भंवर तेन्ह संग ॥ (5) प्रसंग-- प्रस्तुत काव्यांश मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य 'पद्मावत' के 'नखशिख खण्ड' से अवतरित है | इन पंक्तियों में हीरामन तोता रत्नसेन के समक्ष पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन करता है | इन पंक्तियों में पद्मावती की आँखों की सुंदरता का वर्णन किया गया है | व्याख्या -- हीरामन तोता राजा रत्नसेन से कहता है कि पद्मावती के सुन्दर नेत्रों की समानता कोई नहीं कर सकता। ये ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे भान ( स्वाभिमान ) रूपी समुद्र से भरकर उमड़ रहे हों। उसके नेत्रों में रक्त की लालिमा छाई हुई है तथा उनमें दोनों काली पुतलियाँ ऐसी दिखाई देती हैं मानो लाल कमल पर भँवरे मँडरा रहे हों। उसकी काली पुतलियाँ देखकर ऐसा लगता है मानो वे भँवरे होकर घूम रहे हों और उन कमलों का पान करके उड़ जाना चाहते हों अथवा वे नेत्र उछलते हुए उन घोड़ों के समान हैं जो किसी लगाम से नहीं बँधना चाहते हों और वे इतना अधिक उठ जाएँगे कि आकाश में लग जाएँगे। वे वायु को भी झकोर देते हैं तथा वे स्वर्ग को भी पृथ्वी पर लाने के पश्चात् उसे फिर उसी स्थान पर पहुँचा देते हैं अर्थात् उसके दोनों नेत्र दूसरों के हृदय में इतनी हलचल मचा देते हैं मानो उन्हें स्वर्ग में ले जाकर फिर भूमि पर गिरा देते हों अर्थात् प्रसन्नता प्रदान करके फिर निराश कर देते हैं। जब ये नेत्र चलते हैं तो मानो समस्त संसार हिलने लगता है। ये मानों क्षण भर में सब कुछ उलट देना चाहते हों। जब ये नेत्र घूमते हैं तो ऐसा लगता मानो ये सम्पूर्ण आकाश को पकड़ कर डुबो देंगे क्योंकि भँवर का जोड़ा उसके पास है। ये नेत्र ऐसे प्रतीत होते हैं मानो समुद्र रूपी हिंडोरे झूल रहे हों अथवा नेत्रों के रूप में दो खंजन पक्षी क्रीड़ा कर रहे हों या भूले हुए दो मृग हों। जैसे समुद्र मोतियों व तरंगों से भरा रहता है वैसे ही वे नेत्र चंचलता और राग से भरे हैं। जो भी इन्हें प्राप्त करने के लिए आता है वह इनकी काल रूपी तरंगों या नेत्रों की तीव्रता ( तेज ) को देखकर वापस चला जाता है।
बरुनी का बरनौं इमि बनी । सांधे बान जानु दुइ अनी || जुरौ राम रावन कै सैना | बीच समुंद भए दुए नैना || वारहिं पार बनावरि सांधी । जासौं हेर लाग बिख बांधी || उन्ह बानन्ह अस को को न मारा । बेधि रहा सगरौं संसारा || गगन नखत जस जाहिं न गने । हैं सब बान ओहि के हने || धरती बान बेधि सब राखी । साखा ठाढ़ि देहिं सब साखी || रोवं रोवं मानुस तन ठाढ़े । सोतहि सोत बेधि तन काढ़े || बरुनि बान सब ओपहं, बेंध रन बन ढंग । सउजन्ह तन सब रोवां, पंखिन्ह तन सब पंख ॥ (6) प्रसंग-- प्रस्तुत काव्यांश मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य 'पद्मावत' के 'नखशिख खण्ड' से अवतरित है | इन पंक्तियों में हीरामन तोता रत्नसेन के समक्ष पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन करता है | इन पंक्तियों में पद्मावती की आँखों की पलकों की सुंदरता का वर्णन किया गया है | व्याख्या -- हे राजन्मैं! उस पद्मावती की पलकों का क्या वर्णन करूँ अर्थात् वे अवर्णनीय है। उसकी पलकों के बाल इस प्रकार खड़े हैं जैसे एक दूसरे के सामने दो सेनाएँ बाणों का संधान करके खड़ी हुई हो। अथवा राम और रावण की सेनाएं खड़ी हों और उनके बीच में समुद्र हो। उसी प्रकार पद्मावती की दोनों पलकों रूपी सेना की रोमावली के मध्य समुद्र रूपी आँखें हैं उसकी दोनों पलकें मानो एक दूसरी की ओर बाणों की पंक्ति ताने हुए प्रतीत होती हैं | अतः यह पद्मावती जिसको देखती है उसे विष से बेंध देती है। संसार में ऐसा कौन है जिसे उसने इन बाणों से न मारा हो, बल्कि सारा संसार ही उनसे बिंधा हुआ है। उदाहरण के लिए आकाश में असंख्य नक्षत्र हैं, वे सब उसी के बाण से बिंधे हुए हैं जो टिमटिमाते रहते हैं। समस्त पृथ्वी को उसने बाणों से बेंध रखा है जिसके साक्षी वृक्ष हैं जो पृथ्वी पर स्थित हैं। मानवों के शरीर में हुए जो अनेक रोम हैं वे मानो शरीर बेंध कर निकले हुए बाण हैं। उस पद्मावती ने अपनी बरौनी (पलकों ) के बाल रूपी बाणों से सभी बनखण्डों को बेंध डाला है। सेही के शरीर पर जितने रोम या कांटे होते हैं और पक्षियों के जितने पंख हैं वे सब उसी के पलक रूपी वाण हैं।
नासिक खरग देऊँ केहि जोगू । खरग खीन होहि बदन सँजोगू || नासिक देखि लजाने सुआ । सूक आइ बेसरि होइ उआ || सूआ सो पिअर हिरामनि लाजा । औरु भाउँ का बरनौं राजा || सूआ सो । नाँक कठोर पँवारी । वह कोंविल तिल पुहुप सँवारी || पुहुप सुगंध कहें ऐहि आसा । मकु हिरगाइ लेइ हम बासा || अधर दसन पर नासिक सोभा । दाविँ देखि सुआ मन लोभा || खंजन दुहुँ दिसि केलि कराहीं । दुहुँ वह रस को पाव, को नाहीं || देखि अमिअ रस अधरन्हि भएउ नासिका कीर । पवन बाव पहुँचावै अस रम छाँड न तीर || (7) प्रसंग-- प्रस्तुत काव्यांश मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य 'पद्मावत' के 'नखशिख खण्ड' से अवतरित है | इन पंक्तियों में हीरामन तोता रत्नसेन के समक्ष पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन करता है | इन पंक्तियों में पद्मावती की नासिका की सुंदरता का वर्णन किया गया है | व्याख्या -- पद्मावती की नासिका की समानता करने योग्य तलवार कैसे हो सकती है ? क्योंकि उसके समक्ष तलवार क्षीण (दुबली) है और उस नासिका का संयोग सुन्दर मुख के साथ है अर्थात् नासिका मुख से जुड़ी हैं। पद्मावती की नासिका को देखकर तोता भी लज्जित हो गया क्योंकि तोते की नाक कठोर होती है, जबकि पद्मावती की नाक अत्यंत कोमल हैं। स्वयं शुक्र नामक नक्षत्र तो पद्मावती की नाक के बेसरि (आभूषण) में आकर उदित हो गया अर्थात् उसकी बेसर का मोती शुक्र नक्षत्र के समान सुन्दर है। मैं भी हीरामन नामक तोता हूँ फिर भी पद्मावती की नासिका के समक्ष लज्जित होकर पीला पड़ गया हूँ। हे राजा! अब दूसरों के भावों का मैं क्या वर्णन करूँ? अर्थात् स्वयं लज्जित होकर दूसरों के भाव कहना कठिन है। लज्जा का मूल कारण यह है कि तोते की नाक (चोंच) तो पँवरी (छिद्र करने का औजार) के सामन कठोर होती है जबकि पद्मावती की नासिका इतनी कोमल है कि तिल के फूल के समान सुन्दर है। संसार के सभी फूल यह आशा रखकर सुगंध छोड़ रहे हैं कि संभव है कि पद्मावती हमारी सुगंध को लेकर ही हमें अपने पास रख लें। उसके लाल अधरों और सफेद दाँतों के ऊपर नासिका और भी अधिक सुशोभित हो रही है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे नासिका के रूप में कोई तोता दाँत रूपी अनार को देखकर लोभ में भर कर वहाँ बैठ गया हो। इस नासिका रूपी तोते के दोनों तरफ दो नेत्र रूपी खंजन पक्षी क्रीड़ा कर रहे हों। यह ज्ञात नहीं है कि उस सौन्दर्य का रस कोई प्राप्त करेगा या नहीं। ऐसा प्रतीत होता है कि अधरों के अमृतमय रस को देख कर तोता ही नासिका बन गया है। पद्मावती के साँसों की सुगंधित वायु उस तक पहुँचती है | अतः वह तोता इस प्रकार रम गया है कि उसका किनारा या साथ नहीं छोड़ता।
अधर सुरंग अमिअ रस भरे । बिंब सुरंग लाजि बन फरे || फूल दुपहरी मानहुँ राता । फूल झरहिं जब जब कह बाता || हीरा गहै सो बिद्रुम धारा । बिहंसत जगत होइ उजियारा || भए मंजीठ पानन्ह रंग लागे । कुसुम रंग थिर रहा न आगें || अस कै अधर अमिअ भरि राखे। अबहिं अछत न काहूं चाखे || मुख तंबोल रंग धारहिं रसा । केहि मुख जोग सो अंबित बसा || राजा जगत देखि रंग राते । रुहिर भरे आछहिं बिहंसाते || अमिअ अधर अस राजा, सब जग आस करेइ | केहि कह कंवल बिगासा, को मधुकर रस लेइ || (8) प्रसंग-- प्रस्तुत काव्यांश मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य 'पद्मावत' के 'नखशिख खण्ड' से अवतरित है | इन पंक्तियों में हीरामन तोता रत्नसेन के समक्ष पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन करता है | इन पंक्तियों में पद्मावती के अधरों की सुंदरता का वर्णन किया गया है | व्याख्या -- पद्मावती के सुन्दर रंगीले अधर अमृत रस से भरे हुए हैं। यही कारण है कि उन होठों से समानता न करने से बिम्बफल लज्जित हो कर वन में ही जाकर रहने लगा है। वे अधर दुपहिया फूल के भाँति लाल रंग के हैं। जब वह बात करती है तो लगता है कि उसके मुख से फूल झर रहे हैं। उसके लाल मसूड़ों में सफेद दाँत ऐसे लगते हैं मानो मूंगों के अन्दर किसी ने हीरे जड़ दिए हों। जब वह हँसती है तो लगता है कि सारे संसार में प्रकाश फैल गया है। पान का रंग लगने से अधर गहरे लाल (मजीठ) रंग के हो गए हैं। यही कारण है कि उसके सामने लाल फूल (कुसंभी) का रंग भी स्थिर नहीं रहता अर्थात् फीका पड़ जाता है। इतना ही नहीं, वे अधर अमृत-रस से भरे हुए हैं। अभी तक उन्हें किसी ने स्पर्श नहीं किया है तथा किसी ने उस अमृत रस का पान नहीं किया। मुख में पान रखने के कारण उसकी जीभ भी लाल रंग से भरी है। न जाने, अमृत से भरा हुआ यह मुख किसके योग्य है अर्थात् वह अत्यन्त भाग्यशाली होगा जो उसे प्राप्त करेगा। इस प्रकार के राग या लालिमा से भरे हुए इसके मुख को देखकर समस्त संसार अनुरागमय हो गया है। जब यह हँसती है तो इन अधरों का सौन्दर्य ऐसा प्रतीत होता है जैसे ये रुधिर से भरे हों और वे सभी को अच्छे लगते हैं। हीरामन तोता कहता है - हे राजन! अमृत से भरे इन अधरों की सारा जगत् कामना करता है। न जाने, यह अधर रूपी लाल कमल किसके लिए विकसित हैं और कौन भ्रमर इनका रस लेगा? अर्थात् वह कौन सौभाग्यशाली है जो इन अधरों का पान करेगा।
दसन चौक बैठे जनु हीरा । औं बिच बिच रंग स्याम गंभीरा || जनु भादौं निसि दामिनी दीसी । चमकि उठी तसि भीनि बतीसी || वह जो जोति हीरा उपराहीं । हीरा दिपहिं सो तेहि परिछाहीं || जेहि दिन दसन जोति निरमई । बहुतन्ह जोति जोति ओहि भई || रबि ससि नखत दीन्हि ओहि जोती । रतन पदारथ मानिक मोंती || जहं जहं बिहंसि सुभावहिं हंसी । तह तह छिटकि जोति परगसी || दामिनि दमकि न सरबरि पूजा । पुनि वह जोति औरु को दूजा || बिहंसत हंसत दसन अस चमके,पाहन उठे झरक्कि | दाँरिवं सरि जो न कै सका, फाटेउ,हिया दरक्कि || (9)
प्रसंग– प्रस्तुत काव्यांश मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य ‘पद्मावत’ के ‘नखशिख खण्ड’ से अवतरित है | इन पंक्तियों में हीरामन तोता रत्नसेन के समक्ष पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन करता है | इन पंक्तियों में पद्मावती के दाँतों की सुंदरता का वर्णन किया गया है |
व्याख्या — पद्मावती के आगे के चार दाँत इतने सुन्दर हैं मानो हीरे चमक रहे हों। दाँतों के बीच-बीच में गहरा काला रंग सुशोभित है। उसके बत्तीस दाँतों की पंक्ति इस काले रंग में इस प्रकार चमकती है मानो भादों की काली रात्रि में बिजलियाँ चमक रही हों। उसके दाँतों की पंक्ति हीरों से भी अधिक सुन्दर दिखाई देती है। इतना ही नहीं, बल्कि हीरा ही उसके दाँतों की परछाई से चमकता है।
जिस दिन उसकी दन्तावली के तेज अथवा ज्योति का निर्माण हुआ उस दिन बहुत-सी चमकने वाली वस्तुओं में ज्योति (प्रकाश) आ गई। उसकी ज्योति (तेज) से ही सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, रत्न, बहुमूल्य पदार्थ, मणियों और मोती जगमगाते हैं। जहाँ कहीं भी वह प्रसन्नतापूर्वक स्वाभाविक रूप से हँसती है वहाँ-वहाँ ज्योति छिटक कर व्याप्त हो जाती है। उसकी दन्तावली की चमक की समानता आकाश में चमकने वाली बिजली भी नहीं कर सकती, फिर, और कौन-सी ज्योति होगी जो उसकी समानता कर सके अर्थात् उसके दाँतों की चमक के समान किसी भी ज्योति में प्रकाश या चमक नहीं है।
पद्मावती के हँसते समय उसके दाँत इतने चमकते हैं कि पत्थर आदि के भी उस चमक से कलेजे फट गए । बेचारा अनार जब उसकी समानता न कर सका तो उसका हृदय धड़क कर फट गया ।
रसना कहौं जो कह रस बाता । अंबित बचन सुनत मन राता || हरै सो सुर चात्रिक कोकिला । बीन बंसि वह बैनु न मिला || चात्रिक कोकिल रहहिं जो नाहीं । सुनि वह बैन लाजि छपि जाहीं || भरे पेम मधु बोलै बोला । सुनै सो माति घुर्मि कै डोला || चतुर बेद मति सब ओहि पाहां । रिग जजु साम अथर्बन माहां || एक पक बोल अरथ चौगुना । इन्द्र मोह बरम्हा सिर धुना || अमर भारथ पिंगल औ गीता । अरथ जूझ पंडित नहिं जीता || भावसती ब्याकरन सरसुती पिंगल पाठ पुरान | वेद भेद मैं बात कह तस जनु लागहि बान || (10)
प्रसंग– प्रस्तुत काव्यांश मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य ‘पद्मावत’ के ‘नखशिख खण्ड’ से अवतरित है | इन पंक्तियों में हीरामन तोता रत्नसेन के समक्ष पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन करता है | इन पंक्तियों में पद्मावती की जीभ की सुंदरता का वर्णन किया गया है |
व्याख्या — मैं (हीरामन तोता) पद्मावती की रसना (जीभ) का वर्णन करता हूँ। वह सदा रसीली या मीठी बातें करती है। उसके अमृतमय सरस वचनों को सुनकर सभी का मन उसमें अनुरक्त हो जाता है। उसके स्वर की मधुरता चातक पक्षी और कोयल की आवाज को भी हरण कर लेती है। वीणा व बाँसुरी से भी उस जैसा मधुर स्वर नहीं निकलता। चातक पक्षी और कोयल सदा नहीं रहते हैं क्योंकि वे पद्मावती के स्वर को सुनकर लज्जा का अनुभव करके वन में जाकर छुप गए हैं | जो उसकी आवाज को सुनता है वह मदमस्त होकर चक्कर खाकर घूमने लगता है | ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में जो विधाएं हैं, उनका ज्ञान उसके पास है अर्थात पद्मावती चारों वेदों का ज्ञान रखती है | उसके द्वारा बोले गए प्रत्येक वाक्य के चार अर्थ निकलते हैं | उसकी बातों को सुनकर इंद्र मोह में पड़ जाता है और ब्रह्मा सिर धुनने लगता है | अमरकोश, महाभारत, पिंगलशास्त्र – गीता की व्याख्या करने में कोई भी विद्वान उसे नहीं हर सका |
भास्वती ( ज्योतिष ग्रंथ ) व्याकरण ग्रंथ, सरस्वती कंठाभरण, पिंगलशास्त्र और समस्त पुराणों का उसने अध्ययन किया है | वह वैदिक रहस्यों से भरी बातें करती है | अतः उसके वचनों का प्रभाव बाणों के समान तीव्र होता है | कहने का तात्पर्य है यह है कि वह विदुषी और विभिन्न शास्त्रों की ज्ञाता है |
पुनि बरनौं का सुरंग कपोला । एक नारंग के दुऔ अमोला || पुहुप पंक रस अंब्रित सांधे । केई ये सुरंग खिरौरा बांधे || तेहि कपोल बाएं तिल परा । जेइं तिल देख सो तिल तिल जरा || जनु घुंघुची वह तिल करमुहां । बिरह बान सांधा सामुहां || अगिनि बान तिल जानहुं सूझा। एक कटाख लाख दुइ जूझा || सो तिल काल मेंटि नहिं गएऊ । अब वह गाल काल जग भएऊ || देखत नैन परी परिछाहीं । तेहितें रात स्याम उपराहीं || सौं तिल देखि कपोल पर,गंगन रहा धुव गाड़ि | खिनहि उठै खिन बूड़े, डोलै नहिं तिल छांड़ि || (11)
प्रसंग– प्रस्तुत काव्यांश मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य ‘पद्मावत’ के ‘नखशिख खण्ड’ से अवतरित है | इन पंक्तियों में हीरामन तोता रत्नसेन के समक्ष पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन करता है | इन पंक्तियों में पद्मावती के कपोलों ( गालों ) की सुंदरता का वर्णन किया गया है |
व्याख्या — हे राजन! मैं हीरामन तोता उस पद्मावती के कपोलों के सौन्दर्य का वर्णन क्या करूँ? ऐसा लगता जैसे एक नारंगी के दो भाग करके उसके कपोल के रूप में लगा दिए गए हों। उसके कपोल ऐसे लगते हैं मानो फूलों के पराग को अमृत में गूँथकर किसी ने सुन्दर वर्ण की खाँड की टिकिया में बाँधकर रख दी हो।
उसके कपोल पर बाएं ओर एक तिल का चिह्न है। जो उस तिल को देख लेता है वह तिल-तिल करके अर्थात् धीरे-धीरे जलने लगता है। मानो घूँघची नामक फल इसी तिल को देखकर काले मुँह वाला हो गया है। अथवा वह तिल ऐसा प्रतीत होता है मानो सामने विरह रूपी बाण विंधा हुआ हो। वह तिल ऐसा ज्ञात होता है जैसे अग्नि का बाण हो। उसके एक कटाक्ष से ही दो लाख व्यक्ति मारे जाते हैं। वह तिल उस पद्मावती के कपोलों से नहीं मिटाया जा सका है। अतः अब वह तिल वाला कपोल संसार के लिए मानो मृत्यु बन गया है। जिस किसी ने भी उस तिल को देखा है उसके नेत्रों में इसकी परछाई पड़ गई है। अतः नेत्रों में चारों ओर की लालिमा के मध्य पुतली काली पड़ गई है।
पद्मावती के कपोल पर उस तिल को देखकर आकाश में ध्रुव तारा भी एक स्थान पर स्थित होकर रह गया। वह क्षण भर चमकता है और क्षण भर बुझता है परन्तु अपने स्थान को थोड़ा-सा भी नहीं छोड़ता अर्थात् पद्मावती के कपोल पर स्थित तिल संसार के सभी व्यक्तियों व ध्रुव तारे के लिए आश्चर्यदायक हो गया है।
स्रवन- सीप दुइ दीप सँवारे। कुंडल कनक रचे उजियारे || मनि कुंडल चमकहिं अति लोने । जनु कौंधा लौकाहिं दुहुँ कोने || दुहुँ दिसि चाँद सुरज चमकाहीं। नखतन्ह भरे निरखि नहिं जाहीं || तेहि पर खूँट दीप दुइ बारे । दुइ ध्रुव दुऔ खूँट बैसारे || पहिरे खुंभी सिंहल दीपी । जानहुँ भरी कचपची सीपी || खिन खिन जबहिं चीर सिर गहा। कापत बीज दुहूँ दिसि रहा || डरपहिं देव लोक सिंघला । परै न बीज टूट एहि कला || करहिं नखत सब सेवा, स्रवन दिपहिं अस दोउ | चाँद सुरज अस गहने, औरू जगत का कोउ || (12)
प्रसंग– प्रस्तुत काव्यांश मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य ‘पद्मावत’ के ‘नखशिख खण्ड’ से अवतरित है | इन पंक्तियों में हीरामन तोता रत्नसेन के समक्ष पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन करता है | इन पंक्तियों में पद्मावती के सुसज्जित कानों की सुंदरता का वर्णन किया गया है |
व्याख्या — आभूषण से युक्त पद्मावती के कान ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे सीप के दो दीपक शोभायमान हो रहे हों। उसके कानों में सोने के कुण्डल चमक रहे हैं। कुण्डलों में लगी हुई मणियाँ इतनी मनोहर लगती हैं जैसे आकाश के दो कोनों में बिजली चमक रही हो अथवा दोनों दिशाओं में चाँद और सूरज सुशोभित हों। उनमें हीरे, पन्ने आदि नग रूपी नक्षत्रों के भरे रहने के कारण वे इतने चमत्कृत हैं कि उन्हें देखना भी कठिन हो जाता है। उन कानों पर खूँट नाम के आभूषण हैं जो दीपक के समान जलते या चमकते हैं। वे भी ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे आकाश में दो किनारों पर दो ध्रुव नक्षत्र स्थापित किए गए हों। वह पद्मावती सिंहलद्वीप के बने खुँभी नामक कानों के आभूषणों को धारण करती है जो ऐसे प्रतीत होते हैं मानो सीपी कचपची नामक तारों से भरकर सुशोभित हो। शीश से सरकते हुए वस्त्र को जब वह प्रत्येक क्षण सँभालती है तब उसके कुण्डलों के हिलने से ऐसा प्रतीत होता है जैसे दोनों दिशाओं में बिजली लहरा रही हो। उसे देखकर देवगण व सिंहलद्वीपवासी डरते रहते हैं कि कहीं इस बिजली की कोई कला उन पर टूट कर न गिर पड़े।
पद्मावती के कान आभूषणों से ऐसे चमकते हैं मानो सभी नक्षत्र उसकी सेवा कर रहे हैं। चन्द्रमा और सूर्य के समान जिसके आभूषण हों तो संसार में और कौन उनके सम्मुख रह सकता है अर्थात् पद्मावती के कान अनुपम और अद्वितीय हैं |
बरनौं गींवं कुँज कै रीसी। कंज नार जनु लागेउ सीसी || कुदै फेरि जानु गिउ काढ़ी। हरी पुछारि ठगी जनु ठाढ़ी || जनु हिय काढ़ि परेवा ठाढ़ा । तेहि तें अधिक भाउ गिउ बाढ़ा || चाक चढ़ाई साँच जनु कीन्हा। बाग तुरंग जानु गहि लीन्हा || गिउ मँजूर तँबूचुर हो हारा। बहै पुकारहिं साँझ सँकारा || पुनि तिहि ठाउँ परी तिरि रेखा। घुटत पीक लीक सब देखा || धनि सो गीव दीन्हेउ विधि भाऊ । दहुँ कासों लै करै मेराऊ || कंठ सिरौ मुकताहल माला सोहै अभरन गीवँ | को होइ हार कंठ ओहि लागै केइँ तपु साधा जीवँ || (13)
प्रसंग– प्रस्तुत काव्यांश मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य ‘पद्मावत’ के ‘नखशिख खण्ड’ से अवतरित है | इन पंक्तियों में हीरामन तोता रत्नसेन के समक्ष पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन करता है | इन पंक्तियों में पद्मावती की ग्रीवा ( गर्दन ) की सुंदरता का वर्णन किया गया है |
व्याख्या — हीरामन तोते ने राजा रत्नसेन से कहा कि अब मैं पद्मावती की ग्रीवा (गर्दन) के सौंदर्य का वर्णन करता हूँ । उसकी गर्दन क्रौंच पक्षी की गर्दन से भी कहीं अधिक सुन्दर है तथा इसीलिए वह पद्मावती से ईर्ष्या करता है। वह गर्दन शीशी में लगाए गए कमलदण्ड के समान प्रतीत होती है। अथवा मानो ब्रह्मा ने उसे खराद ( बेडौल वस्तुओं को सुन्दर बनाने का यँत्र ) पर चढ़ाकर बनाया हो। मोरनी बेचारी उससे हार कर ठगी-सी रह गई हो। कबूतर मानो अपने हृदय को निकाल कर खड़ा हुआ है अर्थात् हदय से दुःखी है क्योंकि पद्मावती की गर्दन उसकी गर्दन में अधिक मनोरम है। मानो विधाता ने चाक पर चढ़ा कर साँचे में डाल कर उस पद्मावती की ग्रीवा को अतीव सुन्दर बनाया है। जैसे घोड़े की बाग ( लगाम ) पकड़ लेने के पश्चात् जब वह खड़ा हो जाता तब उसकी गर्दन बाहर की ओर निकली हुई तथा उठी हुई दिखाई देती है उसी सदृश पद्मावती की ग्रीवा जान पड़ती है। उसकी ग्रीवा के समक्ष मोर और मुर्गे पराजित हो गए हैं। अतः वे प्रातः और संध्या के समय उसे प्राप्त करने के लिए पुकारते रहते हैं। उसकी गर्दन पर तीन मनोरम रेखाएँ अंकित हैं। जब वह पान की पीक की घूँट भरती है तो वे रेखाएँ स्पेष्ट दिखाई पड़ती हैं। विधाता ने जिसे यह अनुपम सौन्दर्य प्रदान किया है वह गर्दन धन्य है। पता नहीं किस सौभाग्यशाली का इस गर्दन से संयोग होगा।
पद्मावती की इस ग्रीवा में कंठ का आभूषण और मोतियों की माला ये दो आभूषण शोभायमान हो रहे हैं। पता नहीं किस मानव ने ऐसी तपस्या की है जो इसके गले का हार बनेगा।
कनक दंड दुइ भुजा कलाई। जानहुँ फेरि कुँदेरे भाई || कदलि खाँभ की जानहुँ जोरी। औ राती ओहि कँवल हथोरी || जानहुँ रकत हथोरी बूड़ी। रवि परभात तात वह जूड़ी || हिया काढ़ि जनु लीन्हेसि हाथा। रकत भरी अंगुरी तेहि साथा || औ पहिरें नग जरी अँगूठी। जग बिनु जीव, जीव ओहि मूठी || बांहू कंगन टाड़ सलोनी । डोलति बाँह भाउ गति लोनी || जानहुँ गति बेड़िन देखराई । बाँह डोलाइ जीउ लै जाई || भुज उपमा पॅवनारि न पूजी, खीन भई तेहि चिंत |ठाँवहिं ठाँव बेह भे हिरदैं ऊभि साँस लेई निंत || (14)
प्रसंग– प्रस्तुत काव्यांश मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य ‘पद्मावत’ के ‘नखशिख खण्ड’ से अवतरित है | इन पंक्तियों में हीरामन तोता रत्नसेन के समक्ष पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन करता है | इन पंक्तियों में पद्मावती की भुजाओं की सुंदरता का वर्णन किया गया है |
व्याख्या — उस पद्मावती की कलाई तक दोनों भुजाएँ स्वर्ण-दण्ड के समान मनोहर हैं। मानो वे खराद ( बेडौल वस्तुओं को सुंदर बनाने का यंत्र ) पर चढ़ाकर सुन्दर बनाई गई हों। वे केले के दो खम्बों के समान प्रतीत होती हैं। उसकी हथेलियाँ कमल की भाँति लाल रंग की हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो वे रक्त में डुबो रखी हों। वे प्रातःकालीन सूर्य से भी बढ़कर हैं क्योंकि सूर्य तो गर्म है और ये हथेलियाँ शीतलता से भरी हुई हैं। ऐसा ज्ञात होता है जैसे उन हथेलियों से लोगों के हदयों को निकाल लिया हो। अतः हाथ की अंगुलियाँ भी रक्त से रंजित हो गई हैं। भाव है कि उसकी हथेली को देखकर सभी के हृदय गद्गद हो जाते हैं और उसकी हथेलियों भी उसकी अंगुलियों के समान लाल हैं। वह पद्मावती उन अंगुलियों में नग से जड़ी हुई अंगूठी धारण करती है। अतः ऐसा ज्ञात होता है जैसे समस्त संसार के प्राण उसके हाथों में आ गए हों और संसार प्राण-विहीन हो गया हो। उसके भुजाओं में भुजबंध कंगन, टाड नामक आभूषण सुशोभित हैं। अतः उसकी भुजाओं का चलना ( हिलना ) बहुत सुन्दर लगता है मानो कोई नटी विविध लीलाएँ (क्रीड़ाएँ) दिखा रही हो। ऐसा लगता है कि वह अपनी भुजाओं को हिला कर प्राणों का हरण कर लेगी।
कमलदण्ड उसकी भुजा की समानता न करने के कारण चिन्ता के कारण अतीव क्षीण हो गया। हृदय के कष्ट से उसमें जगह-जगह छिद्र हो गए। यही कारण है कि वह जल में खड़ा होकर सदा ऊँची साँसे भरता रहता है |
हिया थार कुच कंचन लाडू | कनक कचोर उठे करि चाडू || कुन्दन बेल साजि जनु कूंदे । अंब्रित भरे रतन दुइ मूंदे || बेधे भर कंट केतुकी । चाहहिं बेध कीन्ह केंचुकी || जोबन बान लेहिं नहिं बागा । चाहहिं हुलसि हिएं हठि लागा || अगिनि बान दुइ जानहु सांधे । जग बेधहिं जौं होहिं न बांधे || उतंग जंभीर होइ रखवारी । सुइ को सकै राज कै बारी || दारिव दाख फरे अनचाखे । अस नारंग दहुं का कहं राखे || राजा बहुत मुए तपि, लाइ लाइ भुई माथ | काहूं छुऔ न पाए, गए मरोरत हाथ || (15)
प्रसंग– प्रस्तुत काव्यांश मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य ‘पद्मावत’ के ‘नखशिख खण्ड’ से अवतरित है | इन पंक्तियों में हीरामन तोता रत्नसेन के समक्ष पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन करता है | इन पंक्तियों में पद्मावती के उरोजों ( स्तनों ) की सुंदरता का वर्णन किया गया है |
व्याख्या — पद्मावती की छाती थाली के समान है और उसके दो स्तन सोने के लड्डू के सदृश ज्ञात होते हैं। अथवा सोने के दो कटोरे ही उसकी चाटुकारिता करते हुए प्रतीत होते हैं। वे स्तन मानो दो सोने के बेलफल हों जो खराद ( बेडौल वस्तुओं को सुंदर बनाने का यंत्र ) पर चढ़ा कर सुन्दर बनाए गए हों। उसके दोनों स्तन ऐसे दिखाई देते हैं मानो अमृत से भरे हुए दो रत्न के पात्र ढक कर रख दिए गए हों। उसके कुचों ( उरोज या स्तन ) पर स्थित काली घुँडी ऐसी प्रतीत होती है जैसे केतकी फूल में लगे काँटों में दो भँवरें फँस कर वहीं रह गए हों। वे उरोज चोली को फाड़कर बाहर निकलने को मानो व्याकुल हों अर्थात् उसके उरोज अत्यन्त पुष्ट हैं। ये दोनों मानो यौवन रूपी बाण हैं जो किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं चाहते। अतः उल्लास से भर कर किसी के हृदय से लग जाना चाहते हैं। ये स्तन मानो सधे हुए या तने हुए अग्नि बाण हैं। यदि ये चोली में बँधे न रहते तो समस्त संसार को घायल कर देते। ये ऊँची डाल पर लगे नीम्बू के समान हैं जिनकी निरन्तर रखवाली या रक्षा की जाती है। यह तो राजा की वाटिका है, अतः इन्हें कौन स्पर्श कर सकता है अर्थात् कोई भी नहीं छू सकता। इसके स्तन व उन पर लगी काली घुँडी मानो अनार और अंगूर फल हैं जिन्हें किसी ने स्पर्श नहीं किया है। न जाने ये सुन्दर नारंगी (स्तन) किसके लिए रखे गए हैं |
बहुत से राजा इसे प्राप्त करने के लिए पृथ्वी पर सिर पटक-पटक कर मर गए, परन्तु कोई भी इन्हें स्पर्श करने में समर्थ न हो सका और सभी हाथ मलते हुए चले गए।
पेट पत्र चंदन जनु लावा। कुंकुह केसरि बरन सोहावा || खीर अहार न कर सुकुवाँरा । पान फूल के रहे अधारा|| स्याम भुअंगिनी रोमावली। नाभी निकसि कँवल कहँ चली || आइ दुहुँ नारंग बिच भई। देखि मंजूर ठमकि रहि गई || जानुह चढ़ी भँवरन्हि कै पाँती। चंदन खाँभ बाँस के माँती || कै कालिंदी विरह सताई। चलि पयाग अरइल बिच आई || नाभी कुण्डर बनारसी। सौंह को होइ, मीचु तहँ बसी || सिर करवत तन करसी लै लै, बहुत सीझे तेहि आस | बहुत धूम घूँटते मैं देखे, उतरु न देइ निरास || (16)
प्रसंग– प्रस्तुत काव्यांश मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य ‘पद्मावत’ के ‘नखशिख खण्ड’ से अवतरित है | इन पंक्तियों में हीरामन तोता रत्नसेन के समक्ष पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन करता है | इन पंक्तियों में पद्मावती के उदर ( पेट ) की सुंदरता का वर्णन किया गया है |
व्याख्या — पद्मावती का पेट चंदन लगे हुए पत्ते के समान है जो कुंकुम और केसर के रंग के समान शोभायमान है। उसका पेट इतना कोमल है कि वह दूध का भी आहार नहीं करती, बल्कि पान, फूल के आधार पर ही निर्वाह करती है। उसके पेट की रोमावली ऐसी प्रतीत होती है जैसे काली नागिन नाभि से निकल कर मुख रूपी कमल की ओर जा रही हो, परन्तु दो उरोज रूपी नारंगियों के बीच में जैसे ही आई वैसे ही सामने गर्दन रूपी मोर को देखकर भय से रुक गई। भाव यह है कि उसके पेट पर नाभि से लेकर स्तन तक सूक्ष्म व कोमल रोमावली है। वह रोमावली ऐसी प्रतीत होती है मानो भ्रमरों की पंक्ति जैसे चंदन के खम्बे के ऊपर चढ़ रही थी परन्तु उसकी सुगंध में मतवाली होकर वहीं रुक गई। अथवा मानो विरह से दुःखी यमुना जो प्रयाग और अरैल के बीच में स्थित रह गई। उसकी नाभि मानो बनारस का कुण्ड है। उसकी समानता कौन कर सकता है ? वहाँ पर तो मृत्यु रहती है अर्थात् उस तक पहुँचने का अर्थ है मौत का बुलाना। यही कारण है कि उसकी नाभि तक कोई नही पहुँच सका।
उसको प्राप्त करने के लिए बहुत-से राजाओं ने अपने शीश पर आरा धारण किया, बहुत-से राजा कुण्डों की आग में अपने शरीर को तपाते रहे तो बहुतों को मैंने अग्नि का धुआँ पान करते हुए देखा है। परन्तु उसने किसी को भी स्वीकृति नहीं दी। अतः सभी निराश होकर रह गए अर्थात कोई भी उसे प्राप्त नहीं कर सका |
बैरिनि पीठि लीन्ह ओइँ पाछें। जनु फिरि चली अपछरा काछें || मलयगिरि कै पीठि सँवारी। बेनी नाग चढ़ा जनु कारी || लहरें देत पीठि जनु चढ़ा। चीर औढ़ावा कंचुकि मढ़ा || दहुँ का कहँ असि बेनी कीन्हीं । चंदन बास भुअंगन्ह दीन्ही || किस्न के करा चढ़ा ओहि माथें |तब सो छूट अब छूट ने नाथें || कारी कँवल गहे मुख देखा। ससि पाछें जस राहु बिसेखा || को देखै पावै वह नागू। सो देखे माथें मनि भागू || पन्नग पंकज मुख गहे, खँजन तहाँ बईठ | छात, सिंघासन, राज, धन ताकहँ होइ जो डीठ || (17)
प्रसंग– प्रस्तुत काव्यांश मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य ‘पद्मावत’ के ‘नखशिख खण्ड’ से अवतरित है | इन पंक्तियों में हीरामन तोता रत्नसेन के समक्ष पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन करता है | इन पंक्तियों में पद्मावती की पीठ व वेणी ( चोटी ) की सुंदरता का वर्णन किया गया है |
व्याख्या — पद्मावती की पीठ, पेट का शत्रु होने के कारण पीछे की ओर स्थित है, जो ऐसी प्रतीत होती है जैसे कोई सुसज्जित अप्सरा मुड़कर (पीठ फेर कर) चली जा रही हो। उसकी पीठ मलय पर्वत के समान सुन्दर प्रतीत होती है जिस पर वेणी ( गूँत या चोटी ) के रूप में काला सर्प चढ़ा जा रहा हो तथा वह निरन्तर लहराता जा रहा हो। वेणी पर ढका हुआ वस्त्र ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई सर्प केंचुली चढ़ा हुआ हो। न जाने यह वेणी किसके लिए बनाई है। यह वेणी रूपी नागिन सदा पद्मावती के शरीर रूपी चंदन की सुगंध का पान करती रहती है। श्रीकृष्ण तो अपनी कला के कारण इसके मस्तक पर चढ़ गए थे तब तो उन्होंने कृपा करके इसे छोड़ दिया था, परन्तु अब यह इस प्रकार बिंध गई है कि छुट नहीं सकती। मैंने उस सर्प को मुख में कमल धारण किए देखा है अथवा जैसे चन्द्रमा के पीछे राहू विशेष रूप से दिखाई पड़ रहा है। भाव यह है कि सर्प या राहू पद्मावती की चोटी है व कमल तथा चन्द्रमा उसके मुख हैं। उस सर्प रूपी देवी को कौन देख सकता है ? उसे वही देखने में समर्थ होगा जिसने सौभाग्य रूपी मणि को प्राप्त कर लिया हो; अन्यथा कोई उसे प्राप्त नहीं कर सकता।
इसी वेणी रूपी सर्प ने मुख रूपी कमल को अपने मुख में ले रखा है और वहाँ नेत्र रूपी दो खंजन पक्षी बैठे हैं। जो कोई भी सुन्दर दृश्य को देखेगा वह छत्र, सिंहासन, राज्य व धन को प्राप्त करेगा। अर्थात् वह वेणी सौभाग्यशाली राजा को ही प्राप्त होगी।
लंक पुहुमि अस आहि न काहूँ। केहरि कहीं न ओहि सरि ताहूँ ।। बसा लंक बरनै जग झीनी। तेंहि तैं अधिक लंक वह खीनी || परिहँस पिअर भए तेहि बसा। लीन्हें लंक लोगन्ह कहँ हँसा ।। जानहुँ नलिनि खंड दुइ भई। दुहु बिच लंक तार रहि गई ।। हिय सों मोरि चलै यह तागा। पग देत कत सहि सक लागा ।। छुद्र पैंटि मोहहिं नर राजा। इंद्र अखार आइ जनु साजा ।। मानहुं बीन गहे कामिनी। रागहिं सबै राग रागिनी ।। सिंघ न जीता लंक सरि, हारि लीन्ह बन बासु ।। तेंहि रिसि रकत मनई कर, खाइ मरि कै माँसु ।। (18)
प्रसंग– प्रस्तुत काव्यांश मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य ‘पद्मावत’ के ‘नखशिख खण्ड’ से अवतरित है | इन पंक्तियों में हीरामन तोता रत्नसेन के समक्ष पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन करता है | इन पंक्तियों में पद्मावती की कमर ( कटि ) की सुंदरता का वर्णन किया गया है |
व्याख्या — पद्मावती की कटि ( कमर ) के सामन भूमण्डल पर किसी की कटि नहीं है। सिंह की कटि भी उसकी समानता करने में असमर्थ है। संसार में भिड़ की कमर बहुत पतली मानी जाती है, परन्तु वह भी उसके सामने पतली नहीं है। यही कारण है कि ईर्ष्या के कारण भिड़ पीली पड़ गई है। इसी आवेश के कारण वह लोगों को डंक मारती है। उस पद्मावती की कटि इतनी क्षीण है जैसे कमलदण्ड के दो खण्ड कर दिए गए हों और उनके बीच का तार ही उसकी कटि के रूप में रह गया हो। हृदय के भावों के अनुरूप ही मुड़कर वह तार (कटि ) चलती है, अन्यथा पैर आगे रखने पर वह कटि उसके शरीर को कैसे सहन कर सकती है। छोटी-छोटी घंटियाँ जो इसकी कटि में लगी हुई हैं वे मानव राजाओं को मोहित करती हैं। उसकी कमर पर बँधी घंटियाँ देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे इन्द्र ने अखाड़ा (रंगशाला) सजा रखी हो। अथवा उसकी मधुर ध्वनि ऐसी प्रतीत होती है जैसे कोई सुन्दरी बीन लेकर सभी प्रकार की राग-रागनियाँ गा रही हो।
उस पद्मावती की कटि की समानता न करने के कारण सिंह पराजित हो गया। वह जाकर वन में रहने लगा और क्रोध में आकर अब वह मानवों का रक्त-पान करता है और मारकर उनका मांस खा जाता है।
नाभी कुंडर मलै समीरू। समुंद-भँवर जस भवै गंभीरू ।। बहुतै भँवर बौंडरा भए। पहुँचि न सके सरग कहं गए।। चंदन माँझ कुरंगिनि खोजू । दहुँ को पाव को राजा भोजू ।। को ओहि लाग हिवंचल सीझा। काकहं लिखी औस को रीझा ।। तीवई कँबल सुगंध सरीरू । समुद लहरि सो है तन चीरू ।। झूलहिं तरन पाट के झोंपा। साजि मदन दहुँ काकहं कोपा ।। अबहिं सो अहि कंवल कै करी । न जनौं कवन भंवर कहं धरी ।। बेधि रहा जग बासना, परिमल मेद सुगंध । तेहि अरधानी भंवर सब, लुबुधै तजहिं न नीवी-बंध ।। (19)
प्रसंग– प्रस्तुत काव्यांश मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य ‘पद्मावत’ के ‘नखशिख खण्ड’ से अवतरित है | इन पंक्तियों में हीरामन तोता रत्नसेन के समक्ष पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन करता है | इन पंक्तियों में पद्मावती की नाभि की सुंदरता का वर्णन किया गया है |
व्याख्या — पद्मावती के नाभि रूपी कुण्ड से मलय वायु की सुगंध आती है। समुद्र की भँवर के समान उसकी नाभि गंभीर (गहरी) और चक्राकार है। उसकी समानता करने के लिए बहुत-से बवंडर और भँवरें गहरी और घुमावदार हो गई, परन्तु वे इसकी समानता न करने के कारण नष्ट हो गई। उसकी नाभि में वक्रता ऐसी प्रतीत होती है जैसे चंदन के वृक्ष में हिरणी के पदचिह्न हों। न जाने राजा भोज के समान कौन भाग्यशाली होगा जो इसे प्राप्त करेगा। ऐसा कौन है जो उसे प्राप्त करने के लिए हिमालय पर्वत पर तप करेगा। न जाने यह किसके भाग्य में लिखी हुई है और किस पर यह प्रसन्न हो सकेगी। इस नारी का शरीर कमल की सुधि से भरा है। उसके शरीर पर समुद्र की लहरों के समान वस्त्र शोभायमान रहते हैं। इसकी नाभि के समीप के वस्त्रों में रत्न और रेशमी गुच्छे लटकते रहते हैं। न जाने इस प्रकार के सौन्दर्य से कामदेव किस पर क्रोध करने जा रहा है। अभी तो पद्मावती अविकसित कमल की कली है। न जाने किस भ्रमर के लिए वह सुरक्षित है।
उसकी नाभि की सुगंध, परिमल और कस्तूरी से समस्त संसार सुगंधित हो रहा है। भ्रमर समूह भी उसकी सुगंध के लोभ में पड़कर उसके नाड़े बाँधने के स्थान को नहीं छोड़ते हैं।
बरनौ नितंब लंक के सोभा। और गज गवन देखि सब लोभा ।। जुरे जँध सोभा अति पाएं। केरा खाँभ फेरि जनु लाए । । कँवल चरन अति रात बिसेखे। रहहिं पाट, पर पुहुमि न देखे ।। देता हाथ हाथ पगु लेहीं। पगु पर जहाँ सीस तहाँ देहिं ।। माँये भाग को दहूँ अस पावा । कँवल चरन लै सीस चढ़ावा ।। चूरा चाँद सूरज उजियारा। पायल बीच करहिं झनकारा।। अनवट विछिआ नखत तराई। पहुँचि सकै को पावन्हि ताइ ।। वरनि सिंगार न जानेउ । नखसिख जैसे अभोग | तस जग किछौ न पावैँ , उपमा देउँ ओहि जोग ।। (20)
प्रसंग– प्रस्तुत काव्यांश मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य ‘पद्मावत’ के ‘नखशिख खण्ड’ से अवतरित है | इन पंक्तियों में हीरामन तोता रत्नसेन के समक्ष पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन करता है | इन पंक्तियों में पद्मावती की जाँघों व नितम्बों की सुंदरता का वर्णन किया गया है |
व्याख्या — मैं, हीरामन तोता उसके नितम्बों का वर्णन करता हूँ जो कटि की शोभा बढ़ाने वाले हैं। पद्मावती की हाथी के समान चाल को देखकर सभी मोहित हो जाते हैं। उसकी मिली हुई जंघाएँ अत्यन्त सुन्दर हैं। वे ऐसी लगती हैं मानो केले के दो तनों को उलट कर लगा दिया हो। उसके चरण कमल के समान बहुत लाल रंग के हैं जो सदा पदासन (सिंहासन) पर ही रहते हैं। उन्होंने कभी भी भूमि का स्पर्श नहीं किया है। देवतागण उसके चरणों को हाथों पर हाथ रखकर धारण करते हैं। जहाँ-जहाँ पर भी उसके चरण पड़ते हैं वहाँ-वहाँ वे शीश झुकाते हैं। न जाने कौन भाग्यशाली है जो उन चरणों को प्राप्त करेगा और उन चरण-कमलों को शीश पर धारण करेगा। उसके चरणों में दो चूड़े हैं जो सूर्य और चन्द्रमा के भाँति उज्ज्वल हैं। उसके पैरों में पायल भी झंकार करती रहती है। उसके पैरों की अंगुलियों में अनवट और बिछिया नामक आभूषण हैं जो मानो नक्षत्र और तारों के समान हैं। पद्मावती के उन चरणों तक कौन पहुँच सकता है?
कवि कहता है कि मैं श्रृंगार का वर्णन करना नहीं जानता अन्यथा उस पद्मावती के अछूते नख से शिख तक सभी अंग अनुपम हैं। उनके समान मुझे संसार में कुछ भी नहीं दिखाई देता। अतः मैं उनकी समानता किससे करूँ अर्थात् पद्मावती के शारीरिक सुंदरता अवर्णनीय है।