बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ( Baba Saheb Bheemrav Ambedkar )

( यहाँ NCERT की बारहवीं कक्षा की हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘आरोह भाग -2’ में संकलित बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर द्वारा लिखित दो विचारात्मक लेख दिए गए हैं – श्रम विभाजन और जाति प्रथा व मेरी कल्पना का आदर्श समाज )

बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर
बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर

श्रम विभाजन और जाति प्रथा : डॉ बी आर अंबेडकर ( Shram Vibhajan Aur Jaati Pratha : Dr. B. R. Ambedkar )

यह विडंबना की ही बात है कि इस युग में भी जातिवाद के पोषकों की कमी नहीं है | इसके पोषक कई आधारों पर इसका समर्थन करते हैं | समर्थन का एक आधार यह कहा जाता है कि आधुनिक सभ्य समाज ‘कार्य कुशलता’ के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है, और चूंकि जाति प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है | इस तर्क के संबंध में पहली बात तो यही आपत्तिजनक है कि जाति-प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक विभाजन का भी रूप लिए हुए है | श्रम विभाजन, निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है, परंतु किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती | भारत की जाति-प्रथा की एक और विशेषता यह है कि यह श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है जो कि विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता |

जाति-प्रथा को यदि श्रम विभाजन मान लिया जाए तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं है क्योंकि यह मनुष्य की रूचि पर आधारित नहीं है | कुशल व्यक्ति या सक्षम श्रमिक समाज का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यक्तियों की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें, जिससे वह अपना पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सके | इस सिद्धांत के विपरीत जाति-प्रथा का दूषित सिद्धांत यह है कि इससे मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किए बिना, दूसरे की दृष्टिकोण जैसे माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार पहले से ही अर्थात गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है |

जाति-प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्व निर्धारण ही नहीं करते बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बांध भी देती है | भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए | आधुनिक युग में यह स्थिति प्रायः आती है, क्योंकि उद्योग धंधों की प्रक्रिया व तकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अकस्मात परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है और यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो तो इसके लिए भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है? हिंदू धर्म की जाति-प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती जो उसका पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उसमें पारंगत हो | इस प्रकार पेशा-परिवर्तन कि अनुमति न देकर जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है |

इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जाति-प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है | जाति-प्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं करता | मनुष्य की व्यक्तिगत भावना तथा व्यक्तिगत रूचि का इसमें कोई स्थान अथवा महत्व नहीं रहता | ‘पूर्व लेख’ ही इसका आधार है | इस आधार पर हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न इतनी बड़ी समस्या नहीं जितनी यह है कि बहुत से लोग ‘निर्धारित’ कार्य को अरुचि के साथ केवल विवशतावश करते हैं | ऐसी स्थिति स्वभावत: मनुष्य को दुर्भावना से ग्रस्त रहकर टालू काम करने और कम काम करने के लिए प्रेरित करती है | ऐसी स्थिति में जहाँ काम करने वालों का न दिल लगता हो न दिमाग, कोई कुशलता कैसे प्राप्त की जा सकती है | अतः यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि आर्थिक पहलू से भी जाति-प्रथा हानिकारक प्रथा है क्योंकि यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा रुचि वह आत्म-शक्ति को दबा कर उन्हें अस्वाभाविक नियमों में जकड़ कर निष्क्रिय बना देती है |

मेरी कल्पना का आदर्श समाज : डॉ बी आर अंबेडकर ( Meri Kalpana Ka Adarsh Samaj : Dr. B. R. Ambedkar )

जाति-प्रथा के खेदजनक परिणामों की नीरस गाथा को सुनते-सुनाते आप में से कुछ लोग निश्चय ही ऊब गए होंगे | यह अस्वाभाविक भी नहीं है | अतः अब मैं समस्या के रचनात्मक पहलू को लेता हूँ | मेरे द्वारा जाति-प्रथा की आलोचना सुनकर आप लोग मुझसे यह प्रश्न पूछना चाहेंगे कि यदि मैं जातियों के विरुद्ध हूँ तो फिर मेरी दृष्टि में आदर्श-समाज क्या है? ठीक है, यदि ऐसा पूछेंगे, तो मेरा उत्तर होगा कि मेरा आदर्श-समाज स्वतंत्रता, समता, भ्रातृता पर आधारित होगा | क्या यह ठीक नहीं है, भ्रातृत्व अर्थात भाईचारे में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? किसी भी आदर्श-समाज में इतनी गतिशीलता होनी चाहिए जिससे कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे तक संचारित हो सके | ऐसे समाज के बहुविधि हितों में सबका भाग होना चाहिए तथा सबको उनकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए | सामाजिक जीवन में अबाध संपर्क के अनेक साधन व अवसर उपलब्ध रहने चाहिए | तात्पर्य यह है कि दूध-पानी के मिश्रण की तरह भाईचारे का यही वास्तविक रूप है और इसी का दूसरा नाम लोकतंत्र है | क्योंकि लोकतंत्र केवल शासन की एक पद्धति ही नहीं है, लोकतंत्र मूलतः सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है | इनमें यह आवश्यक है कि अपने साथियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव हो |

इसी प्रकार स्वतंत्रता पर भी क्या कोई आपत्ति हो सकती है? गमनागमन की स्वाधीनता, जीवन तथा शारीरिक सुरक्षा की स्वाधीनता के अर्थों में शायद ही कोई ‘स्वतंत्रता’ का विरोध करे | इसी प्रकार संपत्ति के अधिकार, जीविकोपार्जन के लिए आवश्यक औजार व सामग्री रखने के अधिकार जिससे शरीर को स्वस्थ रखा जा सके के अर्थ में भी ‘स्वतंत्रता’ पर कोई आपत्ति नहीं हो सकती तो फिर मनुष्य की शक्ति के सक्षम एवं प्रभावशाली प्रयोग की भी स्वतंत्रता क्यों न प्रदान की जाए?

जाति प्रथा के पोषक जीवन, शारीरिक-सुरक्षा तथा संपत्ति के अधिकार की स्वतंत्रता तो स्वीकार कर लेंगे, परंतु मनुष्य के सक्षम एवं प्रभावशाली प्रयोग की स्वतंत्रता देने के लिए जल्दी तैयार नहीं होंगे, क्योंकि इस प्रकार की स्वतंत्रता का अर्थ होगा अपना व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता किसी को नहीं है, तो इसका अर्थ उसे ‘दासता’ में जकड़कर रखना होगा, क्योंकि ‘दासता’ केवल कानूनी पराधीनता को ही नहीं कहा जा सकता | ‘दासता’ में वह स्थिति भी सम्मिलित है जिससे कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों के द्वारा निर्धारित व्यवहार एवं कर्तव्यों का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता है | यह स्थिति कानूनी पराधीनता न होने पर भी पाई जा सकती है | उदाहरणार्थ, जाति प्रथा की तरह ऐसे वर्ग होना संभव है, जहाँ कुछ लोगों को अपनी इच्छा के विरुद्ध पेशे अपनाने पड़ते हैं |

अब आइए ‘समता’ पर विचार करें | क्या ‘समता’ पर किसी की आपत्ति हो सकती है? फ्रांसीसी क्रांति के नारे में ‘समता’ शब्द ही विवाद का विषय रहा है | ‘समता’ के आलोचक यह कह सकते हैं कि सभी मनुष्य बराबर नहीं होते और उनका यह तर्क वजन भी रखता है | लेकिन तथ्य होते हुए भी यह विशेष महत्व नहीं रखता | क्योंकि शाब्दिक अर्थ में ‘समता’ असंभव होते हुए भी यह नियामक सिद्धांत है | मनुष्यों की क्षमता तीन बातों पर निर्भर करती है — (1) शारीरिक वंश परंपरा, (2) सामाजिक उत्तराधिकार अर्थात सामाजिक परंपरा के रूप में माता-पिता की कल्याण कामना, शिक्षा तथा वैज्ञानिक ज्ञानार्जन आदि सभी उपलब्धियाँ जिनके कारण सभ्य समाज जंगली लोगों की अपेक्षा विशिष्टता प्राप्त करता है, और अंत में (3) मनुष्य के अपने प्रयत्न | इन तीनों दृष्टिओं से निस्संदेह मनुष्य समान नहीं होते | तो क्या इन विशेषताओं के कारण समाज को भी उनके साथ असमान व्यवहार करना चाहिए? समता का विरोध करने वालों के पास इसका क्या जवाब है?

व्यक्ति विशेष के दृष्टिकोण से, असमान प्रयत्न के कारण, असमान व्यवहार को अनुचित नहीं कहा जा सकता | साथ ही प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता का विकास करने का पूरा प्रोत्साहन देना सर्वथा उचित है | परंतु यदि मनुष्य प्रथम दो बातों में आसमान है, तो क्या इस आधार पर उनके साथ भिन्न व्यवहार उचित हैं? उत्तम व्यवहार के हक की प्रतियोगिता में वे लोग निश्चय ही बाजी मार ले जाएंगे जिन्हें, उत्तम कुल, शिक्षा, पारिवारिक ख्याति, पैतृक संपदा तथा व्यावसायिक प्रतिष्ठा का लाभ प्राप्त है | इस प्रकार पूर्ण सुविधा संपन्नों को ही ‘उत्तम व्यवहार’ का हकदार माना जाना वास्तव में निष्पक्ष निर्णय नहीं कहा जा सकता | क्योंकि यह सुविधा संपन्नों के पक्ष में निर्णय देना होगा | अतः न्याय का तकाजा यह है कि जहाँ हम तीसरे ( प्रयासों की असमानता, जो मनुष्यों के अपने वश की बात है ) आधार पर मनुष्यों के साथ असमान व्यवहार को उचित ठहराते हैं, वहाँ प्रथम दो आधारों ( जो मनुष्य के अपने वश की बातें नहीं हैं ) पर उनके साथ असमान व्यवहार नितांत अनुचित है | और हमें ऐसे व्यक्तियों के साथ यथासंभव समान व्यवहार करना चाहिए | दूसरे शब्दों में, समाज को यदि अपने सदस्यों से अधिकतम उपयोगिता प्राप्त करनी है, तो यह तो संभव है, जब समाज के सदस्यों को आरंभ से ही समान अवसर एवं समान व्यवहार उपलब्ध कराए जाएं |

‘समता’ का औचित्य यहीं पर समाप्त नहीं होता | इसका और भी आधार उपलब्ध है | एक राजनीतिज्ञ पुरुष का बहुत बड़ी जनसंख्या से पाला पड़ता है | अपनी जनता से व्यवहार करते समय, राजनीतिज्ञ के पास न तो इतना समय होता है न प्रत्येक के विषय में इतनी जानकारी ही होती है, जिससे वह सबकी अलग-अलग आवश्यकताओं तथा क्षमताओं के आधार पर वांछित व्यवहार अलग-अलग कर सके | वैसे भी आवश्यकताओं और क्षमताओं के आधार पर भिन्न व्यवहार कितना भी आवश्यक तथा औचित्यपूर्ण क्यों न हो, ‘मानवता’ के दृष्टिकोण से समाज दो वर्गों व श्रेणियों में नहीं बांटा जा सकता | ऐसी स्थिति में राजनीतिज्ञ को अपने व्यवहार में एक व्यवहार्य सिद्धांत की आवश्यकता रहती है और यह व्यवहार्य सिद्धांत यही होता है कि सब मनुष्यों के साथ समान व्यवहार किया जाए | राजनीतिज्ञ यह व्यवहार इसलिए नहीं करता कि सब लोग समान होते, बल्कि इसलिए कि वर्गीकरण एवं श्रेणीकरण संभव होता |

इस प्रकार ‘समता’ यद्यपि काल्पनिक जगत की वस्तु है फिर भी राजनीतिज्ञ के लिए सभी परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए यही मार्ग भी रहता है, क्योंकि यही व्यावहारिक भी है और यही उसके व्यवहार की एकमात्र कसौटी भी है |

यह भी देखें

भक्तिन : महादेवी वर्मा ( Bhaktin : Mahadevi Verma )

बाजार दर्शन : जैनेंद्र कुमार ( Bajar Darshan : Jainendra Kumar )

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पहलवान की ढोलक : फणीश्वरनाथ रेणु ( Pahalvan Ki Dholak : Phanishwar Nath Renu )

नमक : रज़िया सज्जाद ज़हीर ( Namak : Razia Sajjad Zaheer )

चार्ली चैप्लिन यानी हम सब : विष्णु खरे ( Charlie Chaplin yani Hum Sab : Vishnu Khare )

शिरीष के फूल : हजारी प्रसाद द्विवेदी ( Shirish Ke Phool : Hajari Prasad Dwivedi )