एक जले हुए मकान के सामने ( Ek Jale Hue Makan Ke Samne ) : कुंवर नारायण

शायद वह जीवित है अभी, मैंने सोचा

इसने इनकार किया –

मेरा तो कत्ल हो चुका है कभी का !

साफ दिखाई दे रहे थे

उसकी खुली छाती पर

गोलियों के निशान | 1️⃣

तब भी उसने कहा –

ऐसे ही लोग थे, ऐसे ही शहर

रुकते ही नहीं किसी तरह

मेरी हत्याओं के सिलसिले |

जीते जी देख रहा हूँ एक दिन

एक आदमी को अनुपस्थित –

सुबह-सुबह निकल गया है वह

टहलने अपने बिना | 2️⃣

लौटकर लिख रहा है

अपने पर एक कविता अपने बरसों बाद

रोज पड़ता है अखबारों में

कि अब वह नहीं रहा

अपनी शोक-सभाओं में खड़ा है वह

आंखें बंद किए दो मिनटों का मौन | 3️⃣

भूल गया है रास्ता

किसी ऐसे शहर में

जो सैकड़ों साल पहले था |

दरअसल कहीं नहीं है वह

फिर भी लगता है कि हर जगह वही है |

नया-सा लगता कोई पुराना आदमी

किसी गुमनाम गली में

एक जले हुए मकान के सामने

खड़ा हैरान

कि क्या यही है उसका हिंदुस्तान | 4️⃣

सोच में पड़ गया है वह

इतनी बड़ी रोशनी का गोला

जो रोज निकलता था पूरब से

क्या उसे भी लील गया कोई अंधेरा? 5️⃣

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