विप्रलब्धा ( Vipralabdha ) : डॉ धर्मवीर भारती

बुझी हुई राख, टूटे हुए गीत, डूबे हुए चांद,

रीते हुए पात्र, बीते हुए क्षण-सा –

मेरा यह जिस्म

कल तक जो जादू था, सूरज था, वेग था

तुम्हारे आश्लेष में

आज वह जूड़े से गिरे हुए बेले-सा

टूटा है, म्लान है |

दुगना सुनसान है

बीते हुए उत्सव-सा, उठे हुए मेले-सा | (1)

मेरा यह जिस्म –

टूटे खंडहरों की उजाड़ अंत:पुर में

छूटा हुआ एक साबित मणि-जटित दर्पण-सा –

आधी रात दंश-भरा बाहुहीन

प्यासा सर्पीला कसाव एक

जिसे जकड़ लेता है

अपनी गुंजलक में | (2)

अब सिर्फ मैं हूँ, यह तन है, और याद है

खाली दर्पण में धुंधला-सा एक प्रतिबिंब

मुड़-मुड़ लहराता हुआ

निज को दोहराता हुआ !……………..(3)

कौन था वह

जिसने तुम्हारी बाहों के आवर्त में

गरिमा से तन कर समय को ललकारा था !

कौन था वह

जिसकी अलकों में जगत की समस्त गति

बंध कर पराजित थी ! (4)

कौन था वह

जिसके चरम साक्षात्कार का एक गहरा क्षण

सारे इतिहास से बड़ा था, सशक्त था !

कौन था कनु, वह

तुम्हारी बाहों में

जो सूरज था, जादू था, दिव्य था, मंत्र था

अब सिर्फ मैं हूँ, यह तन है, और याद है !

मंत्र-पढ़े बाण-से छूट गये तुम तो कनु,

शेष रही मैं केवल,

कांपती प्रत्यंचा सी | (5)

अब भी जो बीत गया,

उसी में बसी हुई

अब भी उन बाहों के छलावे में

कसी हुई

जिन रूखी अलकों में

मैंने समय की गति बांधी थी –

हाय उन्हीं काले नागपाशों से

दिन-प्रतिदिन, क्षण-प्रतिक्षण बार-बार

डंसी हुई

अब सिर्फ मैं हूँ, यह तन है –

और संशय है |

बुझी हुई राख में छिपी चिनगारी-सा

रीते हुए पात्र की आखिरी बूंद-सा

पाकर खो देने की व्यथा-भरी गूँज-सा ……………(6)

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