भारतेंदु हरिश्चंद्र ( Bhartendu Harishchandra, 9 september, 1850-6January, 1885) हिंदी के आरंभिक नाटककार हैं | उन्होंने हिंदी नाटक को नई पहचान दी | उन्होंने अपनी लेखनी से अनेक उत्कृष्ट नाटकों की रचना की जिनमें से कुछ मौलिक नाटक है तो कुछ अनूदित | भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा रचित नाटकों को दो भागों में बांटा जा सकता है – मौलिक नाटक और अनूदित नाटक |
भारतेंदु हरिश्चंद्र के मौलिक नाटक
वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति – (1873)( इस नाटक में भारतेन्दु ने मांसाहार के कारण की जाने वाली हिंसा पर व्यंग्य किया है ),
प्रेम जोगिनी ( 1874),
सत्य हरिश्चंद्र( 1875),
चन्द्रावली (1875),
विषस्य विषमौषधम् ( 1876),
भारत जननी (1877) (कुछ विद्वान् इसे बांग्ला नाटक ‘भारतमाता’का अनुवाद मानते हैं तो कुछ भारतेन्दु जी का मौलिक नाटक मानते हैं ),
भारत दुर्दशा( 1880),
नील देवी ( 1880),
🔹 अंधेर नगरी (1881) ( इस नाटक की रचना भारतेन्दु जी ने बिहार के एक विवेकहीन रजवाड़े को आधार बनाकर की थी परन्तु यह नाटक उस समय की विवेकहीन, भ्रष्ट, विलासी और निरंकुश शासन व्यवस्था पर किया गया व्यंग्य है | नाटक में ब्रिटिश शासन व्यवस्था और धार्मिक पाखंडों पर भी प्रहार किया गया है | ऐसा माना जाता है कि हिन्दू नेशनल थियेटर की मांग पर भारतेन्दु जी ने इस नाटक की रचना एक रात में की थी | ),
सती प्रताप(1884) |
भारतेंदु हरिश्चंद्र के अनूदित नाटक
रत्नावली (1868 हर्षवर्धन द्वारा रचित संस्कृत नाटक का अनुवाद ),
विद्यासुन्दर (1868, बांग्ला से अनूदित ),
पाखण्ड विडंबन (1872), कृष्ण मिश्र कृत प्रबोध चंद्रोदय के तृतीय अंक का अनुवाद ),
कर्पूरमंजरी (1875, प्राकृत में रचित राजशेखर की रचना का अनुवाद ),
मुद्राराक्षस (1878, गुप्तकालीन नाटककार विशाखदत्त के संस्कृत नाटक का अनुवाद ),
दुर्लभ बंधु (1880, शेक्सपियर द्वारा रचित नाटक ‘मर्चेंट ऑफ वेनिस’ का अनुवाद ) |
भारतेंदु हरिश्चंद्र ( Bhartendu Harishchandra ) के नाटकों से स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने नाटकों के कथानक, भाषा, शिल्प व रंगमंच का गहन अध्ययन किया था | उनके नाटक सामाजिक रूढ़ियों व अंधविश्वासों का विरोध करते हैं | उनके नाटकों में यथार्थ को प्रहसन के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है | जीवन के कुत्सित यथार्थ को हास्य-व्यंग्य के माध्यम से अभिव्यक्त करना एक जटिल कार्य हैं परंतु भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने जितनी सफलता से यह कार्य किया है वह उनकी महान साहित्यिक प्रतिभा का परिचायक है |
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