सतत संपोषणीय विकास ( Sustainable Development )

  सतत संपोषणीय विकास 
   ( Sustainable Development )
जब से इस धरा पर मानव का प्रादुर्भाव हुआ है तभी से वह निरंतर विकासशील रहा है । अपनी  जीवन शैली को सरल बनाने के लिए व अपने लिए अधिक से अधिक भौतिक संसाधन जुटाने के लिए उसने निरंतर विकास किया है । इस विकास-यात्रा  में मानव ने प्रकृति के उन संसाधनों का भरपूर दोहन किया है जो सदियों से उसके जीवन का आधार रहे । प्रकृति ने जहाँ मानव की रोटी , कपड़ा और मकान  जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति की है वहीं उसके लिए भोग विलास के उन साधनों को भी सुलभ किया जिनसे मानव अत्यधिक सुविधाभोगी जीव बन कर प्रकृति का अंधाधुँध दोहन करने लगा । मानव की अधिक से अधिक सुविधाओं की चाह और बढ़ती हुई जनसंख्या से प्रकृति की सीमित पुनरुत्पादन क्षमता को उजागर कर दिया । बढ़ रही जनसंख्या के भरण-पोषण की समस्या की पूर्ति के लिए रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से पर्यावरण पर प्रतिकूल  प्रभाव पड़ने लगा । जिसका प्रभाव मानव व अन्य जीव-जंतुओं पर स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा । जलवायु परिवर्तन , पर्यावरण-असंतुलन , जल संसाधन व मृदा संसाधन  का ह्रास , वायु प्रदूषण जैसी अनेक समस्याएँ उत्पन्न जो गयी जिसका मुख्य कारण मनुष्य द्वारा पर्यावरण के प्रति संवेदनहीन रवैया अपनाकर अनियोजित विकास की अंधी होड़ है ।

संघृत या संपोषणीय विकास

बढ रहे प्राकृतिक असंतुलन को कम करने के लिए संघृत या पोषणीय विकास की अवधारण का जन्म हुआ । पोषणीयता ( Sustainability ) वास्तव में सभी प्राकृतिक पर्यावरणीय तंत्रों का  एक ऐसा लक्षण है जो मानव हस्तक्षेप को न्यूनतम मात्रा में स्वीकार करता है । स्पष्ट है कि मानव का सीमित हस्तक्षेप होने पर पर्यावरणीय तंत्र मानव द्वारा प्रयुक्त संसाधनों को पुनरुत्पादित कर अपना संतुलन बनाए रखते हैं परंतु मानव का पर्यावरणीय तंत्रों में अत्यधिक हस्तक्षेप होने पर पर्यावरण की पुनरुत्पादन क्षमता विकृत हो जाती है ।
यद्यपि मानव काफ़ी पहले से पर्यावरण की महत्ता से परिचित था  परंतु पर्यावरण-संरक्षण पर बल देने की आवश्यकता का पहली बार अनुभव 1980 के दशक में हुआ जब बढ़ती हुई जनसंख्या और बढ़ते हुए औद्योगिकरण के कारण पर्यावरण में मानवीय हस्तक्षेप बढ़ने लगा ।
‘संघृत विकास’ ( sustainable Development ) शब्द का प्रयोग 1980 के दशक के आरम्भ में ही प्रचलन में आने पर भी इसका व्यापक प्रयोग 1987 में पर्यावरण एवं विकास पर विश्व आयोग द्वारा किया गया ।
संक्षेप में भावी पीढ़ी की अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमता में ह्रास किए बिना वर्तमान पीढ़ी के लिए आवश्यक सुविधाएँ जुटाना ही संघृत विकास है ।
संघृत विकास की अवधारणा मुख्यतः पृथ्वी की सहन क्षमता एवं विविधता के संरक्षण के लिए संसाधनों का सीमित दोहन व प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए योजनाबद्ध प्रयास के सिद्धांतों पर आधारित है ।
इस प्रकार संघृत विकास पर्यावरण के जैविक एवं अजैविक घटकों के संरक्षण पर बल देता है ।
🔷 वर्तमान समय में अनेक पर्यावरण समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं जिन्होंने मानव के अस्तित्व को ख़तरे में डाल दिया ।
▪अम्लीय वर्षा – वैज्ञानिकों का मानना है कि औद्योगिक और परिवहन के साधनों से उत्सर्जित सल्फ़रडाई ऑक्साइड व नाइट्रोजन डाई आक्ससाइड वर्षा के जल से क्रिया करके क्रमश: सल्फ़्यूरिक अम्ल व नाइट्रिक अम्ल बनाते हैं । अम्लीय वर्षा का मृदा की उपजाऊ क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । अम्लीय वर्षा वनों पर भी बुरा प्रभाव डालती है । अम्लीय वर्षा संगमरमर व लाल पत्थर से निर्मित ऐतिहासिक इमारतों का संक्षारण करती है । भारत में ताजमहल का संक्षारण अम्लीय वर्षा की संक्षारण क्षमता का एक उदाहरण है ।
▪ओज़ोन का अवक्षय– वायुमंडल में 30-60 किलोमीटर की ऊँचाई पर ओज़ोन गैस की परत पाई जाती है । यह परत सूर्य की हानिकारक पराबैगनी विकिरणों को पृथ्वी पर आने से रोकती है । ये पराबैगनी विकिरणें त्वचा कैंसर को जन्म देती हैं परंतु ओज़ोन की परत हमें सुरक्षात्मक आवरण प्रदान करती है ।
ऐरोसोल समूह के रसायनों के कारण ओज़ोन की परत का अवक्षय हो रहा है जो एक चिंता का विषय है ।
▪जलवायु परिवर्तन – प्रकृति के साथ की गयी छेड़खानी के कारण प्रकृति अपना संतुलन खो रही है और जलवायु में अनायास परिवर्तन हो रहा है । तापमान में वृद्धि हो रही है , ध्रुवों पर जमी बर्फ़ पिघल रही है । परिणामस्वरूप महासागरों का जल-स्तर बढ़ रहा है । अनेक छोटे-छोटे द्वीप जल-मग्न हो रहे हैं । जलवायु परिवर्तन के कारण अनेक महामारियों का प्रकोप बढा है । प्रकृति का संरक्षण ही जलवायु-परिवर्तन को रोकने का एकमात्र उपाय है ।
ग्लोबल वार्मिंग – पृथ्वी के वायुमंडल के ताप में वृद्धि होना ग्लोबल वार्मिंग या हरित गृह प्रभाव कहलाता है । हैलोजनिक गैसें व क्लोरोफ़्लोरो कार्बन समूह के रसायन इसके लिए उत्तरदायी हैं । इनमें सर्वाधिक योगदान कार्बनडाइ ऑक्साइड का है ।
ग्लोबल वार्मिंग के कारण ध्रुवों पर जमी बर्फ़ तेज़ी से पिघल रही है और समुद्र का जल-स्तर बढ़ रहा है जिसके परिणामस्वरूप अनेक छोटे-छोटे द्वीप जल-मग्न हो रहे हैं ।
▪️ भूमिगत जल स्तर में गिरावट – मानव की पर्यावरण विरोधी गतिविधयों के कारण भूमिगत जल-स्तर में लगातार गिरावट आ रही है | विश्व के अनेक देशों में जल-संकट ने जहाँ विकराल रूप धारण कर लिया है वहीं भारत के अनेक भागों में भी ग्रीष्म ऋतु में जल-संकट अपनी दस्तक देने लगा है | अत: सरकार जल-संरक्षण के लिए विभिन्न योजनाएं बना रही है |

🔷 वस्तुत: अनियोजित विकास की अवधारणा ने पर्यावरण को ख़तरनाक स्तर तक प्रभावित किया है । सुखद बात है कि विश्व के अधिकांश देश इस तथ्य को समझने लगे हैं और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण संरक्षण को लेकर सामूहिक प्रयास किए जा रहे हैं । पर्यावरण-संरक्षण सम्बंधी  नियमावली की अनुपालना की अपेक्षा प्रत्येक राष्ट्र से की जाती है और उसका उल्लंघन करने पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दोषी देश की भर्त्सना की जाती है ।
मुख्यतः विकासशील व विकसित देश निरंतर विकास के लक्ष्य को पाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन करके व पर्यावरण के लिए हानिकारक गतिविधियों को अंजाम देकर पर्यावरण संकट उत्पन्न कर रहे हैं ।
बढ़ती हुई जनसंख्या के भरण पोषण , वैश्विक स्तर पर औद्योगिक प्रतिस्पर्धा , सभी देशों में एक दूसरे के प्रति अविश्वास की भावना कुछ ऐसे कारण हैं जिनके फलस्वरूप सभी देश ऐसे क्रिया कलापों को प्रोत्साहन दे रहे हैं जो संघृत विकास की अवधारणा के  विरुद्ध हैं ।
ऐसे में संघृत विकास ( Sustainable Development )की अवधारणा भी नि:शस्त्रीकरण की भाँति आंशिक रूप से ही सफल हो पायी है |

 संदर्भ सामग्री :
1 Environment Studies – डॉ० के० के० सक्सेना
2 पर्यावरण अध्ययन – डॉ० राजकुमार ,डॉ० बी० सी० जाट
3 वाटरशेड मैनेजमेंट श्री वी० वी० ध्रुवनारायण , श्री जी० शास्त्री , श्री वी० एस० पटनायक
4 ग्रामीण  विकास मंत्रालय द्वारा जारी जलग्रहण विकास – दिशा निर्देशिका
5 A Text Book Environmental Education- डॉ० जे० पी० यादव

Dr.  Charan Dass
Assistant Professor ( Hindi )
Government College for Girls, Taraori ( Karnal )