अधिकार : अर्थ, परिभाषा एवं विशेषताएं ( Adhikar : Arth, Paribhasha Evam Visheshtayen )

मनुष्य के सामाजिक जीवन कोसरल और संपन्न बनाने के लिए समाज और राज्य की ओर से मनुष्य को कुछ अधिकार प्राप्त होते हैं | यह अधिकार व्यक्ति को राज्य की ओर से इसलिए दिए जाते हैं ताकि वह अपने जीवन का सर्वांगीण विकास कर सके |

अधिकार का अर्थ व परिभाषा

अधिकार ऐसी सामाजिक अवस्था का नाम है जिसके बिना मनुष्य का सर्वोन्मुखी विकास करना संभव नहीं है | अधिकार राज्य द्वारा दी गई कुछ ऐसी सुविधाएं हैं जो किसी व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए परम आवश्यक हैं | इन सुविधाओं के अभाव में किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास नहीं हो सकता भले ही वह कितना ही प्रतिभासंपन्न क्यों न हो | आधुनिक लोकतंत्र के युग में अधिकारों का महत्व और भी अधिक है | इसी कारण लोकतंत्रात्मक देशों में संविधान द्वारा लोगों को महत्वपूर्ण अधिकार दिए जाते हैं ताकि व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का संतुलित विकास करने के योग्य हो सके |

अधिकारों के कुछ महत्वपूर्ण परिभाषाएं निम्नलिखित हैं : –

🔹 लॉस्की के अनुसार – “अधिकार उन सामाजिक परिस्थितियों का नाम है जिनके बिना कोई व्यक्ति पूर्ण रूप से विकास नहीं कर सकता |”

🔹बोसांके के अनुसार – “अधिकार वह मांग है जिसे समाज स्वीकार करता है और राज्य लागू करता है |”

अधिकारों की मुख्य विशेषताएं या तत्व

1. अधिकार किसी व्यक्ति या व्यक्ति-समूह की मांग है

अधिकार किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह की एक मांग है | मनुष्य की अनेक रुचियां हैं जिनकी संतुष्टि के लिए मनुष्य को कुछ सामाजिक अवस्थाओं की आवश्यकता है और व्यक्ति अथवा व्यक्तियों का समूह इन अवस्थाओं की मांग करता है और समाज या राज्य उस दावे को उचित मानता हुआ उसे स्वीकार कर लेता है |यदि व्यक्तियों की ऐसी मांग समाज के हित में नहीं होती तो समाज उनकी ऐसी मांग को स्वीकार नहीं करता | वास्तव में यह एक ऐसी जायज मांग है जो प्रत्येक व्यक्ति के विकास के लिए आवश्यक होती है परंतु किसी दूसरे व्यक्ति के मार्ग में कोई बाधा उत्पन्न नहीं करती |

2. अधिकार एक उचित और वैध मांग है

कोई नागरिक नशीले पदार्थ बेचने, नशीले पदार्थों का सेवन करने या आत्महत्या करने की स्वतंत्रता की मांग नहीं करता क्योंकि यह मांगें व्यक्ति के अपने व समाज के कल्याण के लिए उचित नहीं होती | केवल वही मांगे अधिकार के रूप में स्वीकार की जाती हैं जो व्यक्ति के मानसिक और शारीरिक विकास के लिए आवश्यक हो और जो नैतिक पक्ष से स्वीकार करने योग्य हों | व्यक्तियों की अनैतिक या अनुचित मांग को राज्य द्वारा अधिकारों के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता हो सकता है | हो सकता है कि वह मांग उस समय उस व्यक्ति के लिए लाभकारी सिद्ध होती हो लेकिन बहुत से दूसरे व्यक्तियों के लिए वह अहितकर सिद्ध हो तो ऐसी अवस्था में दूसरे व्यक्ति के अधिकारों का हनन होने लगता है तो इस प्रकार की मांग को राज्य द्वारा कभी भी स्वीकार नहीं किया जाता |

3. अधिकार समाज द्वारा स्वीकृत होने चाहिए

व्यक्ति की कोई भी मांग तब तक अधिकार नहीं बन सकती जब तक उसे समाज की स्वीकृति नहीं मिल जाए समाज व्यक्ति की केवल उन्हीं मांगों को स्वीकार करता है जो सभी मनुष्यों के विकास के लिए आवश्यक होती हैं समाज द्वारा स्वीकृत अधिकारों को ही राज्य की मान्यता प्राप्त होती है और इस प्रकार उन्हें वास्तव में लागू किया जाता है | कभी-कभी ऐसा भी होता है कि लंबे समय से चली आ रही गलत परम्पराएं समाज के कुछ लोगों को कुछ गलत अधिकार प्रदान कर देती हैं या कुछ लोगों के संवैधानिक अधिकारों को छीन लेती हैं | राज्य उन गलत परंपराओं का विरोध करता है और संविधान के दृष्टिकोण से उन्हें अनुचित मानते हुए उन गलत परंपराओं को समाप्त करने की कोशिश करता है | जैसे केरल में सबरीमाला मंदिर में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है जबकि संविधान के अनुसार स्त्रियों का भी यह अधिकार है कि वह किसी भी मंदिर में प्रवेश कर सकती हैं लेकिन वहां का रूढ़िवादी समाज गलत परंपरा के कारण वर्षों से महिलाओं के इस अधिकार को छीन रहा है जबकि संविधान ( राज्य ) महिलाओं का सबरीमाला मंदिर में प्रवेश करना व पूजा-अर्चना करना उनका अधिकार मानता है |

4. अधिकार सबके लिए समान होते हैं

जीवन में विकास के लिए व अपना जीवन सफलतापूर्वक जीने के लिए सभी लोगों को कुछ अधिकारों की आवश्यकता होती है | इसलिए अधिकार समान रूप से बिना किसी भेदभाव के सभी वर्गों के व्यक्तियों को प्राप्त होने चाहिए | जो सुविधाएं किसी विशेष धर्म, जाति, नस्ल आदि के आधार पर दी जाती हैं, उन्हें अधिकार का नाम नहीं दिया जा सकता |

5. अधिकार सीमित व प्रतिबंधित होते हैं

प्रत्येक नागरिक को प्राप्त अधिकार सीमित व प्रतिबंधित होते हैं | इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को जब कुछ अधिकार दिए जाते हैं तो उसकी कुछ सीमाएं निर्धारित कर दी जाती हैं ताकि दूसरे लोगों के अधिकारों की सुरक्षा हो सके और समाज में शांति बनी रहे | उदाहरण के लिए प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार प्राप्त है कि वह अपने विश्वास के अनुसार अपने धर्म को मान सकता है, धार्मिक संस्था बना सकता है, अपने धर्म का प्रचार कर सकता है लेकिन यह सब करते हुए उसे यह ध्यान रखना आवश्यक है कि वह कोई ऐसा कार्य न करे जिससे किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति की भावनाओं को ठेस पहुंचे | ठीक इसी प्रकार व्यक्ति को भाषण देने और अपने विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता तो है परंतु वह इस स्वतंत्रता का प्रयोग लोगों को भड़काने और समाज में अशांति फैलाने के लिए नहीं कर सकता |

6. अधिकार और कर्त्तव्य का पारस्परिक संबंध है

अधिकार और कर्तव्य पारस्परिक सम्बद्ध हैं | प्रत्येक अधिकार के साथ एक कर्तव्य जुड़ा है और प्रत्येक कर्तव्य के साथ एक अधिकार | मेरा जो अधिकार है, वह दूसरों का कर्तव्य है | कर्तव्यों का पालन किए बिना व्यक्ति अधिकारों का अधिकारी नहीं बन सकता | अगर हम केवल अपने अधिकारों का ही प्रयोग करते रहें और किसी भी कर्तव्य के को न मानें तो ऐसी अवस्था में दूसरे के अधिकारों का हनन तो होगा ही हमारे अधिकार भी सुरक्षित नहीं रह पाएंगे |

7. अधिकार राज्य द्वारा स्वीकृत होते हैं

अधिकार राज्य द्वारा स्वीकृत किए जाते हैं और राज्य ही उन अधिकारों को लागू करता है | प्रत्येक व्यक्ति के अधिकारों को सुनिश्चित करना राज्य का कार्य है | यदि कोई व्यक्ति दूसरे के अधिकारों का उल्लंघन करता है तो ऐसे व्यक्ति को राज्य द्वारा दंड दिया जाता है | जिन अधिकारों को राज्य की सुरक्षा प्राप्त नहीं होती उन्हें वैधानिक अधिकार नहीं कहा जा सकता ; वह केवल नैतिक अधिकार हैं |

◼️ निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि अधिकार किसी भी नागरिक की उचित मांग है जो उस व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक है | यह वह न्यूनतम परिस्थितियां हैं जिन परिस्थितियों के अभाव में कोई भी व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर सकता | यही कारण है कि समाज भी इसे स्वीकार करता है और अगर कहीं समाज रूढ़िवादी है तो ऐसी अवस्था में राज्य आगे आता है और और यह सुनिश्चित करता है कि वे परिस्थितियां प्रत्येक नागरिक को उपलब्ध हों | राज्य द्वारा अधिकारों को सीमित करना अर्थात उन पर कुछ प्रतिबंध लगाना भी सभी नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए उठाया गया कदम है |

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