भारतेन्दु हरिश्चंद्र कृत नाटक ‘अंधेर नगरी’ का कथासार

प्रथम दृश्य- (स्थान-बाहरी प्रान्त) महंत गुरु और दो शिष्य नारायण दास और गोबर्धन दास ।

प्रथम दृश्य में महंत और उनके दोनों शिष्य भजन गाते हुए एक नगर में प्रवेश करते हैं। महंत अपने शिष्यों को शिक्षा देते हैं कि व्यक्ति को अपने जीवन में लोभ का परित्याग करना चाहिए। लोभ एक ऐसी प्रवृति है जो हमारे अन्दर के विवेक को नष्ट कर देती है | गुरु अपने दोनों शिष्यों को दो विपरीत दिशाओं में भिक्षाटन के लिए भेज देते हैं। गोवर्धनदास जो थोड़ा सा लोभी और आलसी था, उसे गुरु पश्चिम दिशा कि ओर भेजते हैं और नारायणदास जो परिश्रमी था, उसे पूर्व दिशा की ओर भेज देते हैं। गोवर्धनदास अपने गुरु महंत जी से कहता है कि वह बहुत सारी भिक्षा लेकर उनके पास लौटेगा। महंत उसे समझाते हैं कि अधिक लालच नहीं करना चाहिए क्योंकि लालच ही पाप का मूल है। लालच से यश और मान सम्मान दोनों ही समाप्त हो जाते हैं।

दूसरा दृश्य- (स्थान-बाजार) कबाववाला, घासीराम, नारंगीवाला, हलवाई, कुंजरीन, चूरनवाला, मछलीवाला, बनिया, पाचकवाला, मुग़ल, जातवाला (ब्राहमण)

दूसरे दृश्य की कथा बाजार से शुरू होती है। जहाँ पर बाजार की चहल-पहल के साथ-साथ छोटे-छोटे विक्रेता अपनी वस्तुओं को आकर्षक बनाकर बेचने का प्रयास कर रहे हैं। इस दृश्य में कुल ग्यारह पात्र हैं। गोवर्धनदास बहुत खुश है। उसे बहुत ही आश्चर्य होता है कि यहाँ पर हर चीज टके सेर मिल रही है। नमकीन भी टके सेर और मिठाइयाँ भी टके सेर। वह पूछता है कि इस नगर का नाम क्या है? यहाँ के राजा कौन है? उसे उतर मिलता है। इस नगर का नाम अंधेर नगरी है और राजा का नाम चौपट राजा है। जहाँ पर मूल्यवान और मूल्यहीन दोनों तरह की वस्तुओं में कोई अंतर नहीं हो। दोनों को सामान बना दिया गया हो। वहाँ का राजा विवेकहीन ही होगा। यहाँ तक कि इस बाजार में ब्राहमण की अपनी जात भी टके सेर में बेचनी पड़ती है। उदाहरण- “जात ले जात, टके सेर जात एक टका दो, हम अपनी जात बेचते हैं। टके के वास्ते ब्राहमण से धोबी हो जाए और धोबी को ब्राह्मण कर दे, टके के वास्ते जैसी कहो वैसी व्यवस्था कर दे।” बाजार का शोरगुल और भीड केवल बाजार का दृश्य ही नहीं बल्कि उस समय की प्रशासनिक व्यवस्था को हमारे सामने रेखांकित करता है।

तीसरा दृश्य- (स्थान-जंगल)महंत और दोनों शिष्य

तीसरे दृश्य में महंत और उसके दोनों शिष्य जंगल में मिलते हैं। यहाँ पर नारायण दास राम भजो, राम भजो का जप करता है। गोवर्धनदास सपने में भी अंधेर नगरी को याद करता है क्योंकि वहाँ हर चीज टके सेर मिलने से बहुत खुश है। महंत शहर में गुणी और अवगुणी एक ही भाव मिलने की खबर सुनकर सचेत हो जाते हैं। वे अपने शिष्यों को तुरंत ही समझाते हुए शहर छोड़ने के लिए कहते हैं। ‘सेत-सेत सब एक से जहाँ कपूर कपास ऐसे देश कुदेस में, कबहूँ ना कीजै बास। नारायण दास अपने गुरु का बात मान लेता है और गोवर्धन दास सस्ते स्वादिष्ट भोजन के लालच में वहीं रहने का फैसला करता है। यह कहकर महंत चले जाते हैं। जाते-जाते महंत गोबरधन को कहते हैं कि यदि कभी कोई कठिनाई आये तो वह उन्हें याद करे ताकि वे उसकी मदद कर सकें।

चौथा दृश्य- (स्थान-राजसभा) : मंत्री, फरियादी और अन्य दरबारी।

चौथे दृश्य में चौपट राजा के दरबार और न्याय को दिखाया गया है। राजसभा में राजा, मंत्री,नौकर आदि सभी अपने-अपने स्थान पर विराजमान हैं। राजा मूर्ख है। वह सेवक को अकारण सजा देना चाहता है। मंत्री उसकी जी हजूरी करने वाला है। दरबार में उपस्थित सभी लोग मूर्ख हैं लेकिन राजा तो सबसे अधिक मूर्ख है। वह विवेकहीन, बुद्धिहीन और डरपोक है। उसी समय दरबार में आकर एक व्यक्ति शिकायत लेकर उपस्थित होता है। वह कहता है कि कल्लू बनिया की दीवार गिर जाने से उसकी बकरी नीचे दबकर मर गई है। इसलिए उसे न्याय और अपराधी को दण्ड मिलना चाहिए। मूर्ख राजा दीवार को दोषी मानता है और उसे दरबार में लाने को कहता है | महामंत्री कहता है कि दीवार को दरबार में नहीं लाया जा सकता | इसके बाद कल्लू बनिए को दोषी ठहराया जाता है | फिर ये दोष कल्लू से राज मिस्त्री, चूना बनाने वाला, भीश्ती, कसाई से होता हुआ कोतवाल पर मढ़ा जाता है | चौपट राजा नगर के कोतवाल को फाँसी की सजा सुना देता है और स्वयं मंत्री का सहारा लेकर वहाँ से चला जाता है।

पांचवा दृश्य- (स्थान-अरण्य) गोबर्धन दास, और उसके चार प्यादे।

पाँचवे दृश्य में गोवर्धन दास टके सेर मिठाई खा-खाकर बहुत मोटा हो गया है। वह आनंद से अपना जीवन व्यतीत करता हुआ अपने आप में मस्त है। वहाँ के लोग विवेक शून्य हैं, वे बुद्धि से रहित हैं। पापी और पुण्यात्मा में कोई अंतर नहीं है। मूर्ख राजा के प्रति लोगों में अन्ध भक्ति है। वह जो कुछ भी कहता है सब ठीक माना जाता है। उन लोगों का मानना है कि राजा अन्याय नहीं कर सकता है। सबको एक ही लाठी से हाँका जाता है। इतना सब होने के बावजूद भी गोवर्धन दास बहुत खुश है क्योंकि उसे खूब खाने को मिलता है। वह सोचता है कि उसने गुरु का साथ नहीं जाकर बहुत अच्छा किया है। तभी गोवर्धन दास को चार सिपाही पकड़कर फांसी देने के लिए ले जाते हैं। वे बताते हैं कि बकरी मरी है इसलिए न्याय के खातिर किसी को तो फाँसी पर जरूर चढ़ाया जाना चाहिए। जब दूबले-पतले कोतवाल के गले में फांसी का फंदा फिट नहीं आया तब राजा ने किसी मोटे आदमी को फांसी देने का हुक्म दे दिया। तुम मोटे हो इसलिए तुम्हारी गर्दन उसमे आ जायेगी। जब गोबर्धन कहता है कि कि क्या मैं ही इस राज्य में मोटा हूँ तो सैनिक कहते हैं कि राजा के डर से यहाँ कोई मोटा नहीं होता है। गोवर्धन दास अपने को असहाय पाकर रोता है,  चिल्लाता है और अपने गुरु को सहायता के लिए बुलाता है। लेकिन सिपाही बलपूर्वक उसे ले जाते हैं।

छठा दृश्य- (स्थान-श्मशान) गोबर्धन दास, सिपाही, गुरु महंत, राजा, मंत्री और कोतवाल।

छठे दृश्य में सिपाही गोवर्धन दास को पकड़कर फाँसी देने के लिए ले जाते हैं। वह सिपाहियों से अनुनय-विनय करता है लेकिन सिपाही उसे नहीं छोड़ते हैं। वह अपने गुरु को याद करता है | उसी समय उसके गुरु अपने दूसरे चेले नारायण दास के साथ वहाँ आ जाते हैं। उसकी सारी बातें सुनकर महंत उसके कान में धीरे से कुछ कहते हैं। इसके बाद गुरु और शिष्य दोनों फाँसी पर चढ़ना चाहते हैं। गुरु चेले के इस विवाद से सिपाही हैरान होते है कि ये दोनों मरने के लिए विवाद क्यों कर रहे है। यह देखकर राजा, मंत्री और कोतवाल गुरु से इसका रहस्य जानना जानना चाहते हैं। तभी गुरु कहते हैं कि इस अवसर पर जो मरेगा, उसे सीधे स्वर्ग मिलेगा। गुरु के ऐसा कहने पर राजा स्वयं फाँसी पर चढ़ने को तैयार हो जाता है और फंदे को अपने गले में डाल लेता है।

अंत में गुरु जी कहते हैं –

“जहाँ न धर्म न बुद्धि नहिं नीति न सुजन समाज।

ते ऐसहिं आपुहिं नसै, जैसे चौपट राज।।”

इस तरह अन्यायी और मुर्ख राजा स्वतः नष्ट हो जाता है।

1 thought on “भारतेन्दु हरिश्चंद्र कृत नाटक ‘अंधेर नगरी’ का कथासार”

Leave a Comment

error: Content is proteced protected !!